(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
यह बात
विशेष ध्यान
देनेकी है कि
गाढ़ नींदमें ‘मैं’ हूँ‒ऐसा
ज्ञान नहीं
होता है । मैं
अभी
सुषुप्तिमें
हूँ, मुझे होश
नहीं है यह
ज्ञान
होनेकी
प्रक्रियामें
छः
सन्निकर्ष (सम्बन्ध)
है, वह सन्निकर्षसे
ज्ञान होता
है जैसे‒ ‘घटोऽयम्’ ज्ञान हुआ तो घटके साथ
हमारा
सम्बन्ध हुआ
नेत्रोंके
द्वारा तथा
नेत्रोंके
साथ सम्बन्ध
हुआ हमारे
मनका और मनका
सम्बन्ध
स्वयं
आत्माके साथ
हुआ तब हमें ‘घटोऽयम्’ ज्ञान हुआ‒यह
है
सन्निकर्ष,
तो हमें
घटाकार
ज्ञान मनके
सम्बन्धसे
हुआ ।
नेत्रोंका
सम्बन्ध घटके
साथ हुआ, मनका
सम्बन्ध
नेत्रोंके
साथ हुआ और ‘स्वयम्’ आत्माका
सम्बन्ध मनके
साथ हुआ तो
मनके
संयोगसे
आत्मामें
ज्ञान होता
है । अगर मनका
सम्बन्ध न हो
तो आत्मामें
ज्ञान नहीं
होता । इस
वास्ते
ज्ञान गुणक
आत्मा है
न्यायकी
दृष्टिसे ।
ज्ञान इसमें
गुण है । आठ
गुण हैं इसके,
वे प्रकट
होते हैं ।
आत्मा गुणोंवाला
है
न्यायशास्त्रके
अनुसार ।
वेदान्त और
सांख्य कहते
हैं कि इसमें
गुण नहीं है, यह
निर्गुण है,
असंग है, ऐसी
असंगता
बताते हैं । तो अच्छे
पढ़े-लिखोंसे
मैंने पूछा
है, मेरी बातें
हुई हैं,
मैंने कोई
परीक्षा
नहीं की है ।
उनसे बात
समझमें आयी
है कि बिना
मनके
संयोगके
ज्ञान नहीं
होता । अच्छे
पढ़े-लिखे सब
शास्त्रोंके
जानकार कहते
हैं कि बिना
मनके
संयोगके
सुषुप्तिमें
ज्ञान नहीं
होता तो हम
कैसे समझें
कि आत्मा ज्ञानस्वरूप
है ? इस
विषयमें
मेरी जो
धारणा है
वह बताता हूँ ।
सुषुप्ति-अवस्थामें
‘मैं हूँ’‒ऐसा
ज्ञान नहीं
होता; परन्तु
सुषुप्तिमें
मेरेको कुछ
भी ज्ञान
नहीं था ।
जगनेके बाद
ऐसा अनुभव
होता है कि
मेरेको कुछ भी
पता नहीं था ।
यह ज्ञान तो
उस समयमें
हुआ है न ?
प्रश्न‒महाराजजी
! यह ज्ञान तो
जगनेके बाद
हुआ है न ?
उत्तर‒जगनेके
बाद तो
स्मृति होती
है ।
स्मृतिका
लक्षण
न्यायमें
आता है ‘अनुभवजन्यं
ज्ञानं
स्मृतिः’ अनुभवजन्य
हो और ज्ञान
हो, उसका नाम
स्मृति है तो
मेरेको कुछ
भी पता नहीं
था, यह
भूतकालकी
बात कहते हो ।
यह वर्तमानकी
बात नहीं है ।
थोड़ा ध्यान
दें आप !
मेरेको कुछ
भी ज्ञान
नहीं, यह वर्तमानकी
बात तो नहीं
है न ? यह तो
भूतकालकी
बात है और वर्तमान
अभी जाग्रत्-अवस्थामें
है । तो मुझे
कुछ भी ज्ञान
नहीं था, यह
सुषुप्तिका ज्ञान
है ।
भूतकालकी
स्मृति होती
है तो
भूतकालमें
ऐसा ज्ञान था
यह बात माननी
पड़ेगी, नहीं
तो मुझे कुछ
भी पता नहीं
था, यह कैसे
कहते हो ? और
इसमें कुछ
सन्देह भी
नहीं है । तो
मुझे कुछ भी
पता नहीं था
और मैं
सुखपूर्वक सोया
था यह ज्ञान
सुषुप्तिमें
है । और कुछ
नहीं था, सब
ज्ञानके
अभावका ज्ञान
तो है ही । यह
एक बात हुई ।
दूसरी बात ख्याल करनेकी यह है कि मैं पहले जगता था, बीचमें नींद आ गयी । अब मैं जगा हूँ तो हमारा स्वरूप (होनापन) पहले जाग्रत्में बीचमें सुषुप्ति (गाढ़ नींद) में और अब जगनेके बाद एक ही रहता है । अथवा जगता था तब तो मैं था और अब जगता हूँ तब मैं हूँ, तथा बीचमें नींदमें ‘मैं’ नहीं था‒ऐसा होता है क्या कभी ? नहीं होता, तो अपने ज्ञानका भाव भी है । सुषुप्ति-अवस्थामें और जगनेके बाद अभी ‘मैं’ वही हूँ, तो मेरा होनापन तीनों अवस्थाओंमें एक ही रहा । यह जो ज्ञान है सुषुप्तिका (सब ज्ञानके अभावका ज्ञान और सुखपूर्वक सोया था‒यह ज्ञान) इसमें मन, बुद्धि नहीं है । तो मन, बुद्धिके संयोगके बिना, अपनी सत्ताका ज्ञान कैसे होता है ? तो स्वयंका ज्ञान स्वयंको है, यह मानना पड़ेगा । उस समयमें दूसरी सामग्रीका अभाव है, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम्‒ये सब नहीं दीखते, पर अपनी सत्ताका बोध तो है । इस सत्ताके बोधपर गहरा विचार करो । (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति
सहज है’
पुस्तकसे
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