<!--[if gte mso 9]>
Admin
Normal
Admin
2
18
2013-03-12T06:46:00Z
2013-03-12T06:46:00Z
6
507
2894
24
6
3395
12.00
<![endif]
आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०६९, मंगलवार
पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं
(गत ब्लॉगसे आगेका)
धर्मके लिये तो सही पैसोंकी भी जरूरत नहीं है, फिर पापसे कमाये हुए पैसोंकी क्या जरूरत है ? हमारे घरमें पानीका नल लगा है तो इसका मतलब यह नहीं कि हम धोये हुए कपड़ोंको कीचड़से मैला कर लें और फिर उनको नलसे धोयें । ऐसे ही झूठ, कपट, बेईमानी करके कमाये हुए पैसोंसे धर्म करते हो, तो फिर पहले पाप ही क्यों करते हो ? कपड़ेमें एक छटाँक कीचड़ लग जाय तो वह एक छटाँक जलसे साफ नहीं होता । सेरोंभर जल लगनेपर भी बाहरसे भले ही धुल जाय, पर भीतरसे गंदापन बाकी रह ही जाता है । इसलिये धर्मके लिये भी जो पाप करता है कि पाप करके पैसा कमायें और फिर उसे अच्छे काममें लगा दें, तो उसका पैसा अच्छे काममें लगेगा ही नहीं और लगेगा तो भी वह पापसे शुद्ध होगा नहीं । सब-का-सब पैसा लगा दें, तो भी वह पाप दूर नहीं होगा । अगर धर्म करनेकी आपकी इच्छा होती तो पहले पाप करते ही नहीं । अगर पाप करते हो, तो केवल लोगोंको दिखानेके लिये धर्म करते हो । धर्मकी भावना भीतर है ही नहीं । असली धर्मका तत्त्व जाननेवाला धर्मके लिये पाप कर ही नहीं सकता ।
एक बड़े सदाचारी और विद्वान ब्राह्मण थे । उनके घरमें प्रायः रोटी-कपड़ेकी तंगी रहती थी । साधारण निर्वाहमात्र होता था । वहाँके राजा बड़े धर्मात्मा थे । ब्राह्मणीने अपने पतिसे कई बार कहा कि आप एक बार तो राजासे मिल आओ, पर ब्राह्मण कहते कि वहाँ जानेके लिये मेरा मन नहीं करता । ब्राह्मणीने कहा कि मैं आपसे माँगनेके लिये नहीं कहती । वहाँ जाकर आप माँगो कुछ नहीं, केवल एक बार जाकर आ जाओ । ज्यादा कहा तो स्त्रीकी प्रसन्नताके लिये वे राजाके पास चले गये । राजाने उनको बड़े त्यागसे रहनेवाले गृहस्थ ब्राह्मण जानकर उनका बड़ा आदर-सत्कार किया और उनसे कहा कि आप एक दिन और पधारें । अभी तो आप अपनी मर्जीसे आये हैं, एक दिन आप मेरेपर कृपा करके मेरी मर्जीसे पधारें । ऐसा कहकर राजाने उनकी पूजा करके आनन्दपूर्वक उनको विदा कर दिया । घर आनेपर ब्राह्मणीने पूछा कि राजाने क्या दिया ? ब्राह्मण बोले‒दिया क्या, उन्होंने कहा कि एक दिन आप फिर आओ । ब्राह्मणीने सोचा कि अब माल मिलेगा । राजाने निमन्त्रण दिया है, इसलिये अब जरूर कुछ देंगे ।
एक दिन राजा रात्रिमें अपना वेश बदलकर, बहुत गरीब आदमीके कपड़े पहनकर धूमने लगे । ठण्डीके दिन थे । एक लुहारके यहाँ एक कड़ाह बन रहा था । उसमें घन मारनेवाले आदमीकी जरूरत थी । राजा इस कामके लिये तैयार हो गये । लुहारने कहा कि एक घंटा काम करनेके दो पैसे दिये जायँगे । राजाने बड़े उत्साहसे, बड़ी तत्परतासे दो घंटे काम किया । राजाके हाथोंमें छाले पड़ गये, पसीना आ गया, बड़ी मेहनत पड़ी । लुहारने चार पैसे दे दिये । राजा उन चार पैसोंको लेकर आ गया और आकर हाथोंपर पट्टी बाँधी । धीरे-धीरे हाथोंमें पड़े छाले ठीक हो गये ।
एक दिन ब्रह्माणीके कहनेपर वे ब्राह्मण-देवता राजाके यहाँ फिर पधारे । राजाने उनका बड़ा आदर किया, आसन दिया, पूजन किया और उनको वे चार पैसे भेंट दे दिए । ब्राह्मण बड़े सन्तोषी थे । वे उन चार पैसोंको लेकर घर पहुँचे । ब्राह्मणी सोच रही थी कि आज खूब माल मिलेगा । जब उसने चार पैसोंको देखा तो कहा कि राजाने क्या तो दिया और क्या आपने लिया ! आप-जैसे पण्डित ब्राह्मण और देनेवाला राजा ! ब्राह्मणीने चार पैसे फेंक दिये । जब सुबह उठकर देखा तो वहाँ चार जगह सोनेकी सीकें दिखायी दीं । सच्चा धन उग जाता है । सोनेकी उन सीकोंको वे रोजाना काटते पर दूसरे दिन वे पुनः उग आतीं । उनको खोदकर देखा तो मूलमें वे ही चार पैसे मिले !
राजाने ब्राह्मणको अन्न नहीं दिया; क्योंकि राजाका अन्न शुद्ध नहीं होता, खराब पैसोंका होता है । मदिरा आदिपर लगे टैक्सके पैसे होते हैं, चोरोंको दण्ड देनेसे प्राप्त हुए पैसे होते हैं‒ऐसे पैसोंको देकर ब्राह्मणको भ्रष्ट नहीं करना है । इसलिये राजाने अपनी खरी कमाईके पैसे दिये । आप भी धार्मिक अनुष्ठान आदिमें अपनी खरी कमाईका धन खर्च करो ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
|