प्राणिमात्रके
परम सुहृद् भगवान्के
मुखसे निःसृत
‘श्रीमद्भगवद्गीता’
मनुष्यमात्रके
कल्याणके लिये
व्यवहारमें परमार्थकी
अलौकिक शिक्षा
देती है । कोई भी
व्यक्ति (स्त्री,
पुरुष) हो और वह
किसी भी वर्णमें
हो, किसी भी आश्रममें
हो, किसी भी सम्प्रदायमें
हो, किसी भी देशमें,
किसी भी वेशमें
हो, किसी भी परिस्थितिमें
हो, वहीं रहते हुए
ही वह परमात्मतत्त्वको
प्राप्त कर सकता
है । यदि वह
निषिद्ध कर्मोंका
सर्वथा त्याग
कर दे और निष्कामभावसे
विहित कर्मोंको
करता रहे तो इसीसे
उसे परमात्मतत्वकी
प्राप्ति हो जायगी‒
सुखदुःखे
समे कृत्वा लाभालाभौ
जयाजयौ ।
ततो युद्धाय
युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि
॥
(२/३८)
‘जय-पराजय,
लाभ-हानि और सुख-दुःखको
समान समझकर फिर
युद्धमें लग जा
। इस प्रकार युद्ध
करनेसे तू पाप-(बन्धन-)
को प्राप्त नहीं
होगा ।’
युद्धसे बढ़कर
घोर परिस्थिति
और क्या होगी ? जब युद्ध-जैसी
घोर परिस्थितिमें
भी मनुष्य अपना
कल्याण कर सकता
है, तो फिर ऐसी कौन-सी
परिस्थिति होगी,
जिसमें रहते हुए
मनुष्य अपना कल्याण
न कर सके ?
सुख-दुःख, हानि-लाभ
आदि सब आते हैं
और चले जाते हैं,
पर हम ज्यों-के-त्यों
ही रहते हैं । अतः
समतामें हमारी
स्थिति स्वतः-स्वाभाविक
है । उसी समताकी
ओर गीता लक्ष्य
करा रही है कि ये
जो तरह-तरहकी परिस्थितियाँ
आ रही हैं, उनके
साथ मिलो मत, उनमें
प्रसन्न-अप्रसन्न
मत होओ, प्रत्युत
उनका सदुपयोग
करो । अनुकूल
परिस्थिति आ जाय
तो दूसरोंको सुख
पहुँचाओ, दूसरोंकी
सेवा करो और प्रतिकूल
परिस्थिति आ जाय
तो सुखकी इच्छाका
त्याग करो । गीता
कितनी अलौकिक
शिक्षा देती है‒
परस्परं
भावयन्तः श्रेयः
परमवाप्स्यथ
।
(३/११)
‘एक-दूसरेको
उन्नत करते हुए
तुमलोग परम कल्याणको
प्राप्त हो जाओगे
।’
सभी एक-दूसरेके
अभावकी पूर्ति
करें, एक-दूसरेको
सुख पहुँचायें,
एक-दूसरेका हित
करें तो अनायास
ही सबका कल्याण
हो जाय‒‘ते प्राप्नुवन्ति
मामेव सर्वभूतहिते
रताः’ (१२/४) । इसलिये दूसरोंका
हित करना है, दूसरेको
सुख देना है, दूसरेको
आदर देना है, दूसरेकी
बात रखना है, दूसरेको
आराम देना है, दूसरेकी
सेवा करनी है ।
दूसरा हमारी सेवा
करे या न करे, इसकी
परवाह नहीं करनी
है अर्थात् हमें
दूसरेका कर्तव्य
नहीं देखना है,
प्रत्युत निष्कामभावसे
अपने कर्तव्यका
पालन करना है; क्योंकि
दूसरेका कर्तव्य
देखना हमारा कर्तव्य
नहीं है । यहाँ
एक खास बात समझनेकी
है कि हमें मिलनेवाली
वस्तु, परिस्थिति
आदि दूसरे व्यक्तिके
अधीन नहीं है, प्रत्युत
प्रारब्धके अधीन
है । प्रारब्धके
अनुसार जो वस्तु,
परिस्थिति आदि
हमें मिलनेवाली
है, वह न चाहनेपर
भी मिलेगी । जैसे
न चाहनेपर भी प्रतिकूल
परिस्थिति अपने-आप
आती है, ऐसे ही अनुकूल
परिस्थिति भी
अपने-आप आयेगी
। दूसरे व्यक्तिको
भी वही मिलेगा,
जो उसके प्रारब्धमें
है, पर हमें उसकी
ओर न देखकर अपने
कर्तव्यकी ओर
देखना है अर्थात्
अपने कर्तव्यका
पालन (सेवा) करना
है । दूसरी बात,
हमारी सेवाके
बदलेमें दूसरा
हमारी भी सेवा
करेगा तो हमारी
सेवाका मूल्य
कम हो जायगा; जैसे‒हमने
दूसरेको दस रुपये
दिये और उसने हमें
पाँच रुपये लौटा
दिया तो हमारा
देना आधा ही रह
गया ! अतः यदि दूसरा
बदलेमें हमारी
सेवा न करे तो हमारा
बहुत जल्दी कल्याण
होगा । यदि दूसरा
हमारी सेवा करे
अथवा हमें
दूसरेसे सेवा
लेनी पड़ी तो उसका
बड़ा उपकार मानें,
पर उसमें प्रसन्न
न हो । प्रसन्न
(राजी) होना भोग
है और भोग दुःखका
कारण है‒‘ये हि संस्पर्शजा
भोगा दुःखयोनय
एव ते’ (५/२२) ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’
पुस्तकसे
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