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Ramesh Das
Normal
Admin
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2013-04-01T13:09:00Z
2013-04-01T13:22:00Z
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दूसरोंका
अहित करनेसे अपना
अहित और दूसरोंका
हित करनेसे अपना
हित होता है‒यह
नियम है ।
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संसारका सम्बन्ध
‘ऋणानुबन्ध’ है
। इस ऋणानुबन्धसे
मुक्त होनेका
उपाय है‒सबकी
सेवा करना और किसीसे
कुछ न चाहना ।
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साधक
परमात्माके सगुण
या निर्गुण किसी
भी रूपकी प्राप्ति
चाहता हो, उसे सम्पूर्ण
प्राणियोंके
हितमें रत होना
अत्यन्त आवश्यक
है ।
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साधकको
संसारकी सेवाके
लिये ही संसारमें
रहना है, अपने सुखके
लिये नहीं ।
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सच्चे
हृदयसे भगवान्की
सेवामें लगे हुए
साधकके द्वारा
प्राणिमात्रकी
सेवा होती है; क्योंकि
सबके मूल भगवान्
ही हैं ।
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साधकको
अपने ऊपर आये हुए
बड़े-से-बड़े दुःखको
भी सह लेना चाहिये
और दूसरेपर आये
छोटे-से-छोटे दुःखको
भी सहन नहीं करना
चाहिये ।
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दूसरोंको
सुख पहुँचानेकी
इच्छासे अपनी
सुखेच्छा मिटती
है ।
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किसीको
किंचिन्मात्र
भी दुःख न हो‒यह
भाव महान् भजन
है ।
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जैसे
मनुष्य आफिस जाता
है तो वहाँ केवल
आफिसका ही काम
करता है, ऐसे ही
इस संसारमें आकर
केवल संसारके
लिये ही काम करना
है, अपने लिये नहीं
। फिर सुगमतापूर्वक
संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
और नित्यप्राप्त
परमात्माका अनुभव
हो जायगा ।
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समय, समझ,
सामग्री और सामर्थ्य‒इन
चारोंको अपने
लिये मानना इनका
दुरुपयोग है और
दूसरोंके हितमें
लगाना इनका सदुपयोग
है ।
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संयोगजन्य
सुखके मिलनेसे
जो प्रसन्नता
होती है, वही प्रसन्नता
अगर दूसरोंको
सुख पहुँचानेमें
होने लग जाय तो
फिर कल्याणमें
सन्देह नहीं है
।
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हमें
जो सुख-सुविधा
मिली है, वह संसारकी
सेवा करनेके लिये
ही मिली है ।
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मनुष्यशरीर
अपने सुख-भोगके
लिये नहीं मिला
है, प्रत्युत सेवा
करनेके लिये, दूसरोंको
सुख देनेके लिये
मिला है ।
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मनुष्यको भगवान्ने
इतना बड़ा अधिकार
दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी,
मनुष्योंकी, ऋषि-मुनियोंकी,
सन्त-महात्माओंकी,
देवताओंकी, पितरोंकी,
भूत-प्रेतोंकी,
सबकी सेवा कर सकता
है । और तो क्या,
वह साक्षात् भगवान्की
भी सेवा कर सकता
है !
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(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘अमृत-बिन्दु’
पुस्तकसे
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