(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
मान
लें कि कोई
सज्जन अपने
लिये रसोई
बनाता है । अचानक एक
भिक्षु आता
है और आवाज
देता है तो वह सज्जन
बड़े प्रेमसे
उसको भिक्षा
देता है । वह
अन्न बड़ा
शुद्ध होता
है । परन्तु
जब वह सज्जन
रसोई अपनी
थालीमें
परोस लेता है, तब वह अन्न
उतना शुद्ध
नहीं रहता
क्योंकि ‘मैं
भोजन करूँगा’‒यह
भाव आ गया । अब यदि
भिक्षुक आता
है तो उसको वह
अन्न देनेमें
संकोच होता
है और
भिक्षुकको
लेनेमें
संकोच होता
है । फिर भी
भिक्षुक
उसमेंसे
थोड़ा अन्न ले
सकता है ।
परन्तु वह
सज्जन भोजन
करने बैठ गया
और उसने ग्रास
बना लिया तो
वह अन्न
पहले-जैसा
शुद्ध नहीं
रहा । अगर वह
उस ग्रासको
मुँहमें ले
लेता है तो वह
अशुद्ध, जूठन
हो जाता है ।
जब वह उस
ग्रासको
निगल लेता है,
तब (अपने लिये
भोजन करनेसे)
वह महान्
अशुद्ध हो
जाता है । यदि
किसी कारणसे
उलटी हो जाय
तो वह उलटी
किया हुआ
अन्न बड़ा
अशुद्ध होता
है । उलटी न हो
तो वह महान्
अशुद्ध होकर
मैला बन जाता
है । परन्तु
दूसरे दिन वह
जंगलमें उस
मैलेका त्याग
कर देता है तो
हवा, धूप,
वर्षा आदिके
कारण वह मैला
समय लगनेपर
स्वतः
मिट्टीमें
मिलकर मिट्टी
ही बन जाता है
और इतना
शुद्ध हो
जाता है कि
पता ही नहीं
लगता कि
मैलापन कहाँ
था ! वह मिट्टी
दूसरी
वस्तुओं
(बर्तन आदि) को
भी शुद्ध कर देती
है । यह
त्यागका ही
माहात्म्य
है ! इस
प्रकार अपने
लिये
बनाने-खानेसे
शुद्ध वस्तु
भी महान्
अशुद्ध हो
जाती है और
त्याग
करनेसे
महान्
अशुद्ध
वस्तु
(मल-मूत्र) भी
शुद्ध हो
जाती है । अतः
जिस-जिस
वस्तुको हम
स्वार्थवश
अपनी और अपने
लिये मानते
हैं, उस-उस
वस्तुको हम
अशुद्ध कर
देते हैं ।
कारण कि संसारकी
वस्तुएँ
सबके लिये
हैं, उनमें
सबका हिस्सा
है । गीता
कहती है‒
भुञ्जते
ते त्वघं
पापा ये
पचन्त्यात्मकारणात्
॥
(३/१३)
‘जो
केवल अपने
लिये ही
पकाते हैं, वे
पापीलोग तो
केवल पापका
ही भक्षण
करते हैं ।’
हमारे
पास जो चीज है,
वह सबके लिये
है, केवल हमारे
लिये नहीं है‒इस
उदारभावसे
बड़ी शान्ति
मिलती है । रसोई
बननेपर कोई
भूखा आ जाय,
अतिथि आ जाय,
भिक्षुक आ
जाय, कुत्ता
आदि आ जाय तो
शक्तिके
अनुसार उनको
भी दे दें । वे
सब-का-सब
माँगे तो
उनसे कह सकते
हैं कि ‘भाई, सब
कैसे दे दें,
हमें भी तो
लेना है, आप
अपना हिस्सा ले
लो !’ हम
दूसरेको
भोजन तो करा
सकते हैं, पर
उसकी
इच्छापूर्ति
कभी नहीं कर
सकते । इतना
ही नहीं, संसारके
सब लोग मिलकर
भी एक आदमीकी
इच्छापूर्ति
नहीं कर सकते‒
यत्
पृथिव्यां
व्रीहियवं
हिरण्यं
पशवः स्त्रियः
।
न दुह्यन्ति
मनःप्रीतिं पुंसः
कामहतस्य ते
॥
(श्रीमद्भा॰ ९/१९/१३)
‘पृथ्वीपर
जितने भी
धान्य, स्वर्ण,
पशु और स्त्रियाँ
हैं, वे
सब-के-सब
मिलकर भी उस
पुरुषके
मनको सन्तुष्ट
नहीं कर सकते,
जो
कामनाओंके
प्रहारसे
जर्जर हो रहा
है ।’
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
|