(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
आप
जिसको अपना
मानते हो;
कुटुम्बको,
धनको, घरको,
शरीरको अपना
मानते हो कि
ये मेरे हैं ।
तो क्या
ये पहले मेरे
थे ? क्या फिर
अपने रहेंगे ?
अपने थे नहीं
और रहेंगी
नहीं । दूसरी
बात, आप
जिनमें ममता
रखते हो, उनको
बदल सकते हो
क्या ? ‘छोरा
मेरा है’ तो
उसको भी अपनी
आज्ञाके
अनुसार चला
सकते हो क्या ?
अपने शरीरको
भी चाहे जैसा स्वस्थ
रख सकते हैं
क्या ? कम-से-कम
उसको मरने तो
दोगे ही नहीं ?
धन आपके पास
है, उसको रख
लोगे ? है
हाथकी बात ?
शरीर बीमार
भी हो जायगा,
मर भी जायगा,
छोरा भी नहीं
मानेगा । धन
भी चला जायगा ।
ममतावाली
वस्तुओंको
रखनेकी ताकत
किसीकी हो तो
बोलो ! तात्पर्य यह
हुआ कि पहले
थी नहीं और
आगे रहेगी
नहीं और अभी
भी उसके ऊपर
आपका
आधिपत्य
चलता नहीं ।
उसके
परिवर्तन
करनेमें आप
समर्थ नहीं ।
अनुकूल
बनानेमें
समर्थ नहीं ।
पहले भी अपनी
थी नहीं, और
छूट जायगी
जरूर‒यह
पक्की बात है ।
हर एक
बातमें
सन्देह होता
है । आप ऐसा
करें । ऐसा हो
भी जाय और न भी
हो । अमुक जगह
जाना है, अमुक
आदमीसे
मिलना है, तो
क्या मिल
लोगे ? मिल भी
सकते हैं और
नहीं भी ।
बेटेका ब्याह
कर दिया तो
पोता
जन्मेगा
इसका
पता नहीं ! हो
भी सकता है और
नहीं भी हो
सकता है । इस
प्रकार हर एक
काममें होगा
और नहीं भी
होगा‒ऐसा
होता है; पर एक
दिन मरना
होगा और नहीं
भी होगा‒ऐसा
विकल्प है
क्या ? हो भी
सकता है और
नहीं भी, मरे
चाहे, न भी मरे‒ऐसा
हो सकता है
क्या ? जब मरना
जरूरी है तो
मरनेपर
ममतावाली सब
चीजें
छूटेंगी तो
अपनापन (ममता)
पहले छोड़ दो,
तो निहाल हो
जाओगे । अन्तमें
छूटेगी तो
सही ! क्यों
माजनो (इज्जत)
गुमाओ अपनी ।
बेइज्जतीके
सिवाय क्या
मिलेगा ?
आप
कहोगे कि
ममताके बिना
कुटुम्बका
पालन कैसे
होगा ? ममताके
बिना पालन
ज्यादा होता
है, बढ़िया
होता है । एक
बात याद आ गयी ।
वह साधु हो,
ब्राह्मण हो,
आपका हित
ममता रखनेवाला
ज्यादा कर
सकता है या
ममता न
रखनेवाला
ज्यादा कर
सकता है‒ठण्डे
हृदयसे आप
सोचें । आपको
चेला बना ले
कि यह मेरा
चेला है और एक
चेला न बनाकर
आपको बात कहे
तो ममतावाला
ज्यादा लाभ
देगा कि बिना
ममतावाला ।
यह आप सोच लो
आपके अकलमें
आती होगी ।
स्वार्थवाला
सच्ची बात
कहेगा कि
बिना स्वार्थवाला
? और सुधार किस
बातसे होगा । आप भी समझते
हो कि आपका
हित सम्बन्ध
जोड़नेमें है
कि सम्बन्ध
तोड़नेमें । ममता
रखनेमें
सिवाय हानिके
कुछ नहीं है
और छोड़नेमें
सिवाय लाभके
कुछ नहीं है ।
इन बातोंपर
विचार करो ।
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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