(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जिसकी
सत्ता ही
नहीं है, उसको
क्या
मिटायें ? इसलिये
उसको
मिटानेकी
जरूरत नहीं
है । उसकी
उपेक्षा कर
दें तो वह
स्वतः मिट
जायगी; क्योंकि
वह निरन्तर
मिट ही रही है ।
तात्पर्य
है कि अज्ञान
अपने-आप मिट
रहा है, बन्धन
अपने-आप छूट
रहा है, साधक
उसको
मिटानेका
उद्योग नहीं
करे, प्रत्युत
उसकी
उपेक्षा कर
दे, उसकी
बेरपरवाह कर
दे, उससे
उदासीन हो
जाय । जैसे
एक छोटी-सी
दियासलाईसे
प्रकट हुई
अग्निमें
इतनी ताकत है
कि वह घासके
ढेरको जला
देती है, ऐसे
ही असत्की
उपेक्षामें
इतनी ताकत है
कि वह असत्को
मिटाकर सत्का
साक्षात्कार
करा देगी । गीतामें
भगवान्ने
कहा है‒
स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य
त्रायते
महतो भयात् ॥
(२/४०)
‘इस
(समतारूपी)
धर्मका
थोड़ा-सा भी
अनुष्ठान
(जन्म-मरणरूप)
महान् भयसे
रक्षा कर
लेता है ।’
‒इसका
कारण यह है कि
निष्कामभाव
थोड़ा होते
हुए भी सत्य
है और भय
महान् होते
हुए भी असत्य
है । जैसे
मनभर रूई हो
तो उसको
जलानेके
लिये मनभर अग्निकी
जरूरत नहीं
है । रूई एक मन
हो या सौ मन,
उसको
जलानेके लिये
एक दियासलाई
पर्याप्त है ।
एक दियासलाई
लगाते ही वह
रूई खुद
दियासलाई
अर्थात्
अग्नि बन
जायगी । रूई
खुद
दियासलाईकी
मदद करेगी ।
अग्नि रूईके
साथ नहीं होगी,
प्रत्युत
रूई खुद
ज्वलनशील
होनेके कारण
अग्निके साथ
हो जायगी । इसी तरह
असंगता आग है
और संसार रूई
है । संसारसे
असंग होते ही
संसार
अपने-आप नष्ट
हो जायगा;
क्योंकि
मूलमें
संसारकी
सत्ता न होनेसे
उससे कभी संग
हुआ ही नहीं ।
थोड़े-से-थोड़ा
त्याग भी सत्
है और महान्-से-महान्
क्रिया भी
असत् है । क्रियाका
तो अन्त होता
है, पर त्याग
अनन्त होता
है । इसलिये यज्ञ,
दान, तप आदि
क्रियाएँ तो
फल देकर नष्ट
हो जाती है*,
पर त्याग कभी
नष्ट नहीं
होता‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’
(गीता १२/१२) । एक
अहम्के
त्यागसे
अनन्त
सृष्टिका
त्याग हो
जाता है; क्योंकि
अहम्ने ही
सम्पूर्ण
जगत्को
धारण कर रखा
है ।
जैसे,
कितनी ही घास
हो, क्या
अग्निके
सामने टिक
सकती है ?
कितना ही
अँधेरा हो,
क्या
प्रकाशके सामने
टिक सकता है ?
अँधेरे और
प्रकाशमें
लड़ाई हो जाय
तो क्या
अँधेरा जीत
जायगा ? ऐसे ही
अज्ञान और
ज्ञानकी
लड़ाई हो जाय तो
क्या अज्ञान जीत
जायगा ? महान्-से-महान्
भय क्या
अभयके सामने
टिक सकता है ?
पहलेके
कितने ही संस्कार
पड़े हुए हों,
क्या
सत्संगसे वे
जीत जायँगे ?
समता थोड़ी भी
हो तो भी पूरी
है और भय
महान् हो तो
भी अधूरा है ।
स्वल्प भी
महान् है;
क्योंकि वह
सच्चा है और
महान् भी
स्वल्प
(सत्ताहीन) है;
क्योंकि वह
कच्चा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’
पुस्तकसे
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*वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु
यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्
।
अत्येति
तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं
स्थानमुपैति
चाद्यम् ॥
(गीता ८/२८)
‘योगी
इसको (शुक्ल
और
कृष्णमार्गके
रहस्यको) जानकर
वेदोंमें,
यज्ञोंमें,
तपोंमें तथा
दानमें जो-जो
पुण्यफल कहे
गये हैं, उन
सभी पुण्यफलोंका
अतिक्रमण कर
जाता है और
आदिस्थान
परमात्माको
प्राप्त हो
जाता है ।’
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