(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अन्नकूटका
प्रसाद होता
है, उसमें
रसगुल्ला भी
होता है और
करेलेका साग
भी होता है ।
एक मीठा है, एक
कड़वा है, पर
दोनों ही
प्रसाद हैं । प्रसादमें
स्वाद-दृष्टि
नहीं रखी
जाती,
प्रत्युत
स्वादमें
प्रसाद-दृष्टि
रखी जाती है*;
क्योंकि
प्रसाद
इन्द्रियोंका
विषय नहीं है, प्रत्युत
भगवद्भावका
विषय है । इसी
तरह
सम्पूर्ण
पदार्थों और
क्रियाओंको
भगवान्को
अर्पण कर दें
तो वह सब
ठाकुरजीका
प्रसाद अर्थात्
भगवत्स्वरूप
हो जायगा । कारण कि सब
वस्तुएँ
(क्रिया और
पदार्थ)
भगवान्की
हैं तो
वस्तुओंमें
और भगवान्में
कोई फर्क
नहीं हुआ ।
जैसे धन
धनवान्का
है तो धनमें
और धनवान्में
कोई फर्क
नहीं है;
क्योंकि
धनके बिना
धनवान्
नहीं है और
धनवान्के
बिना धन नहीं
है (धन
मिट्टीकी
तरह है) ।
क्रिया और
पदार्थ
प्रकृतिका
कार्य (संसार)
है और
प्रकृति
भगवान्की
शक्ति है ।
शक्ति और
शक्तिमान्में
एकता होती है ।
शक्तिके
बिना
शक्तिमान्
नहीं है और
शक्तिमान्के
बिना शक्ति
नहीं है† ।
अतः भगवान्की
होनेसे सब
वस्तुएँ
भगवत्स्वरूप
ही हैं‒ ‘वासुदेवः
सर्वम्’ ।
ऐसा
मान लें कि हम
भगवान्के
ही हैं,
भगवान्के
घरमें रहते
हैं, भगवान्के
ही घरका काम
करते हैं,
भगवान्का
ही दिया हुआ
प्रसाद पाते
हैं और
भगवान्के
दिये हुए
प्रसादसे
भगवान्के
जनोंकी सेवा
करते हैं । इस
बातको
सब-के-सब मान
सकते हैं । भाई हो या बहन
हो, छोटा हो या
बड़ा हो,
समझदार हो या
बेसमझ हो,
पढ़ा-लिखा हो
या अपढ़ हो,
बीमार हो या स्वस्थ
हो, किसी
वर्णका हो,
किसी
आश्रमका हो,
किसी वेशका
हो, किसी
देशका हो,
किसी
सम्प्रदायका
हो सब-के-सब इस
बातको मान
सकते हैं
अर्थात्
सम्पूर्ण
क्रियाओं और
पदार्थोंको
तथा
अपने-आपको
भगवान्के
समर्पित कर
सकते हैं । इस
प्रकार
समर्पण
करनेसे क्या
होगा ? इसको भगवान्
बताते हैं‒
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे
कर्मबन्धनैः
।
संन्यासयोगयुक्तात्मा
विमुक्तो
मामुपैष्यसि
॥
(गीता ९/२८)
‘इस
प्रकार मेरे
अर्पण
करनेसे
जिनसे
कर्मबन्धन
होता है, ऐसे
शुभ (विहित) और
अशुभ
(निषिद्ध) सम्पूर्ण
कर्मोंके
फलोंसे तू
मुक्त हो
जायगा । ऐसे
अपनेसहित सब
कुछ मेरे
अर्पण
करनेवाला और सबसे
मुक्त हुआ तू
मेरेको
प्राप्त हो
जायगा अर्थात्
मेरा ही
स्वरूप हो
जायगा ।’
जैसे
अग्निमें
ठीकरी, पत्थर
तथा
काले-से-काला कोयला
भी डाल दें तो
वह
अग्निस्वरूप
होकर चमकने
लग जायगा, ऐसे
ही भगवान्के
अर्पण
करनेसे
अर्पित
वस्तु
(क्रिया और
पदार्थ) तथा
अर्पक‒दोनों
भगवत्स्वरूप
होकर चमकने
लग जायँगे ।
एक
अच्छे
गृहस्थ सेठ
थे । वे
भगवान्के
बड़े भक्त थे ।
उनका दर्शन
करनेके लिये
एक साधु उनके
घर आये । साधु
उनसे मिलकर
बड़े प्रसन्न
हुए । साधुने
उनका परिचय
पूछा तो
सेठने बताया
कि मैं भी
ठाकुरजीका
हूँ और यह घर
भी
ठाकुरजीका
है । सेठ
साधुको अपना
सब घर दिखाने
लगे । साधुने
पूछा‒यह
मोटर किसकी
हैं ? सेठ बोला‒
ठाकुरजीकी !
ये चीजें
किसकी हैं ?
ठाकुरजीकी ! ये
किसके बच्चे
खेल रहे हैं ?
ठाकुरजीके !
यह स्त्री
किसकी है ?
ठाकुरजीकी !
ये लोग कौन है ?
ठाकुरजीके !
पूरा मकान
देखते-देखते
ऊपर गये तो
वहाँ मन्दिर
था । यह
मन्दिर
किसका है ?
ठाकुरजीका !
यह सामान किसका
है ?
ठाकुरजीका !
ये
सोने-चाँदीके
बर्तन किसके
हैं ?
ठाकुरजीके !
ये वस्त्र
किसके हैं ? ठाकुरजीके
। ये गहने
किसके हैं ?
ठाकुरजीके ।
साधुने
ठाकुरजीकी
तरफ संकेत
करके पूछा‒ये
किसके हैं ?
सेठ बोला‒ये
तो मेरे हैं‡ ! तात्पर्य
है कि सब
चीजें
ठाकुरजीकी
और ठाकुरजीके
स्वरूप हैं,
और ठाकुरजी
हमारे हैं तो
ठाकुरजीकी
चीजें हमारी
ही हुईं, पर
ठाकुरजीके
द्वारा
हमारी
होनेसे वे
महान्
शुद्ध हो
गयीं ! और
स्वतन्त्र
हमारी
होनेसे महान्
अशुद्ध हो
गयीं !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग
ईश्वररूप है’
पुस्तकसे
_____________________
* प्रसादमें
स्वाद्बुद्धिकी
मुख्यता नहीं
रखनी चाहिये ।
स्वाद आ जाय
तो वह दोषी
नहीं है, पर
स्वाद लेना दोषी
है । स्वादका
ज्ञान होना
दोष नहीं है,
पर स्वादमें
राग होना दोषी
है ।
† यहाँ ऐसा
समझना चाहिये
कि
शक्तिमानके
बिना शक्ति तो
नहीं रहती, पर
शक्तिके बिना
शक्तिमान रह
सकता है;
परन्तु उसकी
‘शक्तिमान’
संज्ञा नहीं
रहती; क्योंकि
वह स्वतः
स्वतन्त्र
तत्त्व है ।
शक्ति स्वतन्त्र
तत्त्व नहीं
है ।
‡ तन भी
तेरा मन भी
तेरा, तेरा
पिण्ड परान ।
सब
कुछ तेरा तू
है मेरा, यह
दादू का ग्यान
॥ |