गीतामें
भगवान् कहते
हैं‒
तं
विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्
।
(६।२३)
‘जिसमें
दुःखोंके संयोगका
ही वियोग है,
उसको योग नामसे
जानना चाहिये
।’
सुख
और दुःख दोनों
आने-जानेवाले
हैं, पर जिस
प्रकाशमें इन
दोनोंके आने-जानेका
भान होता है, उसका नाम ‘योग’ है । उस प्रकाशमें
सुख और दुःख दोनों
ही नहीं हैं । अगर
सुख-दुःखकी सत्ता
मानें तो सुख और
दुःख दोनों भिन्न-भिन्न
हैं । सुखके समय
दुःख नहीं है और
दुःखके समय सुख
नहीं है । परन्तु
ज्ञानमें, चिति शक्तिमें
ये दोनों ही नहीं
हैं । ये दोनों
आने-जानेवाले
और अनित्य हैं‒‘आगमापायिनोऽनित्या’
(गीता
२।१४) । परन्तु
ये दोनों सुख और
दुःख जिससे प्रकाशित
होते हैं, वह
प्रकाश सदा ज्यों-का-त्यों
रहता है । उस प्रकाशको
ही ‘योग’ अथवा
‘नित्ययोग’
कहते हैं । उस नित्ययोगमें
स्थिति करनी नहीं
है, प्रत्युत
उसमें हमारी स्वतःस्वाभाविक
स्थिति है । केवल
उधर लक्ष्य करके
अनुभव करना है
। अगर स्थिति करेंगे
तो कर्तृत्वाभिमान
आ जायगा ।
जैसे
किसी सत्संग-भवनमें
बिजलीका प्रकाश
हो रहा हो तो जब
वहाँ कोई भी आदमी
नहीं आता, तब भी प्रकाश
रहता है, जब
सब आदमी आ जाते
हैं, तब भी प्रकाश
रहता है और जब सब
आदमी चले जाते
हैं, तब भी प्रकाश
रहता है । आदमी
आयें अथवा चले
जायँ, कम आयें
अथवा ज्यादा आयें,
प्रकाशमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता, वह ज्यों-का-त्यों
रहता है । परन्तु
हमारा लक्ष्य
प्रकाशकी तरफ
नहीं रहता, प्रत्युत आदमियोंकी
तरफ रहता है कि
इतने आदमी आ गये,
इतने आदमी चले
गये । इसी तरह संयोग
हो या वियोग हो,
नित्ययोगमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता, वह सदा
ज्यों-का-त्यों
रहता है । नित्ययोगमें
न संसार है और न
संसारका संयोग-वियोग
है । हमें केवल
उधर लक्ष्य करना
है । गीतामें आया
है‒
आत्मसंस्थं
मन: कृत्वा न किञ्चिदपि
चिन्तयेत् ।
(६।२५)
तात्पर्य
है कि कुछ भी चिन्तन
न करे । आत्माका, अनात्माका,
परमात्माका,
संसारका, संयोगका, वियोगका कुछ
भी चिन्तन न करे
। करनेसे उपासना
होती है, तत्त्वकी
प्राप्ति नहीं
होती । तत्त्वकी
प्राप्ति तो केवल
लक्ष्य करनेसे
होती है कि ‘यह है’ !
कोई
तत्वज्ञ, जीवन्मुक्त,
भगवत्प्रेमी
महापुरुष हो या
साधारण आदमी हो,
ज्ञानी हो या
अज्ञानी हो, सदाचारी हो या
दुराचारी हो,
सज्जन हो या
दुष्ट हो, भक्त
हो या कसाई हो,
तत्त्वमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता । तत्त्वमें
न श्रवण है, न मनन है,
न निदिध्यासन
है, न ध्यान
है, न समाधि
है, न व्युत्थान
है । केवल उधर लक्ष्य
करना है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
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