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(गत ब्लॉगसे
आगेका)
कारण
कि भक्त अपनी अहंताको
बदल देता है कि
मैं संसारका; नहीं
हूँ मैं तो भगवान्का
हूँ । यह अहंता-परिवर्तन
एक ही बार होता
है, दो बार
नहीं । जब एक बार
अपनेको दे दिया,
तो फिर दुबारा
देनेके लिये क्या
रह गया ? देना
एक ही बार होता
है और सदाके लिये
होता है । हमने
अपनेको दे दिया
तो अब कुछ भी करना
बाकी नहीं रहा
। अब तो नामजप
करना है, कीर्तन करना
है, भगवान्
और उनके भक्तोंकी
लीलाएँ सुननी
हैं, भगवान्के
जनोंकी सेवा करनी
है; क्योंकि
इससे बढ़कर और कोई
काम है नहीं । यह
सब करके मैं भगवान्का
हो जाऊँगा‒यह
भाव उसमें रहता
ही नहीं । क्या
स्त्रीमें यह
भाव रहता है कि
मैं इतना काम करूँगी
तो पतिकी होऊँगी,
काम नहीं करूँगी
तो नहीं होऊँगी ? वह बीमार हो
जाय, कुछ भी
न करे तो भी पतिकी
ही है और सब काम
करे तो भी पतिकी
ही है । पतिके साथ
कुछ करने या न करनेका
सम्बन्ध नहीं
है, प्रत्युत
स्वीकृतिका सम्बन्ध
है । इसी तरह
भगवान्के साथ
सम्बन्ध हो जाय
तो भजन अपने-आप
होगा, करना नहीं पड़ेगा
। स्त्री तो विधवा
भी हो सकती है,
पर भक्तका सुहाग
स्वतःसिद्ध है,
अमर है, सदासे
ही है ।
ज्यों
तिरिया पीहर रहै, सुरति रहै पिय
माहिं ।
ऐसे जन जगमें रहै, हरि को भूलै नाहिं ॥
लड़की
पीहरमें कुछ दिन
रह जाती है, तो माँसे कहती
है कि ‘माँ,
भाईसे कह कि
मेरेको घर पहुँचा
दे, उनको (पतिको) रोटीकी
तकलीफ हो रही होगी
!’ वह रहती तो
यहाँ है, पर
चिन्ता उस घरकी
है; क्योंकि
वह समझती है कि
मैं यहाँकी नहीं
हूँ । इसी तरह
भक्त जगत्में
रहते हुए भी भगवान्को
नहीं भूलता, प्रत्युत
ऐसा समझता है कि
जगत् मेरा नहीं
है, मेरे तो
भगवान् हैं ।
यह ‘करणनिरपेक्ष
साधन’ है ।
करणनिरपेक्ष
साधनमें अहंता
बदल जाती है । जो
पहले मानता था
कि मैं संसारका
हूँ, वह अहंता
बदलनेपर मानता
है कि मैं भगवान्का
हूँ । जो पहले मानता
था कि मैं ब्राह्मण
हूँ, मैं क्षत्रिय
हूँ, मैं वैश्य
हूँ आदि, वह
अहंता बदलनेपर
मानता है कि मैं
न ब्राह्मण हूँ,
न क्षत्रिय
हूँ, न वैश्य
आदि हूँ, मैं
तो भगवान्का
हूँ ।
नाहं विप्रो
न च नरपतिर्नापि
वैश्यो न शूद्रो
नो वा
वर्णी न च गृहपतिर्नो
वनस्थो यतिर्वा
।
किन्तु
प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताब्धे-
र्गोपीभर्तुः
पदकमलयोर्दासदासानुदासः
॥
‘मैं न तो ब्राह्मण
हूँ, न क्षत्रिय
हूँ, न वैश्य
हूँ, न शूद्र
हूँ, न ब्रह्मचारी
हूँ, न गृहस्थ
हूँ, न वानप्रस्थ
हूँ और न संन्यासी
ही हूँ; किन्तु
सम्पूर्ण परमानन्दमय
अमृतके उमड़ते
हुए महासागररूप
गोपीकान्त श्यामसुन्दरके
चरणकमलोंके दासोंका
दासानुदास हूँ
।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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