(गत ब्लॉगसे आगेका)
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने कहा है‒
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
(मानस, बाल॰ ६)
तात्पर्य है कि जड और चेतन‒दोनों ब्रह्माजीकी सृष्टिमें होनेसे लौकिक हैं । गीतामें भी भगवान्ने कहा है‒
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्राक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥
(गीता १५ । १६)
‘इस लोकमें क्षर और अक्षर‒ये दो प्रकारके पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर क्षर (नाशवान्) हैं और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर (अविनाशी) कहा गया है ।’
इस दृष्टिसे क्षर और अक्षर, शरीर और शरीरी, देह और देही, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ‒ये सभी लौकिक हैं ।
दैवी सम्पत्ति मुक्त करनेवाली और आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली है‒-‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरीमता’(गीता १६ । ५) । दैवी और आसुरी‒दोनों ही सम्पत्तिवाले प्राणी लौकिक हैं‒‘द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च’(गीता १६ । ६) । इसलिये मोक्ष और बन्धन भी लौकिक हैं ।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥
(आत्मोपनिषद् ३१, माण्डूक्यकारिका २ । ३२,तत्वोपदेश ८१, विवेकचूडामणि ५७५)
‘न प्रलय है और न उत्पत्ति है, न बद्ध है और न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त है‒यही परमार्थता अर्थात् वास्तविक तत्त्व है ।’
तात्पर्य है कि बन्धन और मोक्ष‒दोनों ही सापेक्ष होनेसे लौकिक हैं । निरपेक्ष तत्त्वमें न बन्धन है और न मोक्ष है । अत: वास्तविक तत्त्व अलौकिक है । इसलिये प्रेमी भक्त कहता है‒
अब तो बंध मोक्षकी इच्छा व्याकुल कभी न करती है ।
मुखड़ा ही नित नव बन्धन है, मुक्ति चरणसे झरती है ॥
चेतन और जड, जीव और जगत् विचारके विषय हैं;अत: ‘ज्ञान’ लौकिक है । परन्तु भगवान् विचारके विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासके विषय है*; अत: ‘भक्ति’ अलौकिक है । ज्ञानमार्गमें जबतक विवेक रहता है, तबतक लौकिकता रहती है । जब विवेक तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है, तब ज्ञानीमें भी अलौकिकता आ जाती है । कारण कि ज्ञान (तत्त्वज्ञान) अज्ञानका नाशक है । अज्ञानका नाश करके ज्ञान भी शान्त हो जाता है और ज्ञानीमें अलौकिकता आ जाती है । इसलिये जैसे भक्तिमार्गमें मीराबाईका शरीर चिन्मय होकर लीन हो गया था, ऐसे ही ज्ञानमार्गमें भी कबीर साहेबका शरीर चिन्मय होकर लीन हो गया था ।
अवतारके समय लौकिक दृष्टिसे दीखनेपर भी भगवान् सदा अलौकिक ही रहते हैं । लोकमें अवतार लेनेपर भी उनकी अलौकिकता ज्यों-की-त्यों रहती है । भगवान् कहते हैं‒
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
(गीता ४ । ६)
भगवान् ही जगत्-रूपसे प्रकट हुए हैं, इसलिये यह जगत् भगवान्का आदि अवतार कहा जाता है‒‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ ( श्रीमद्भा॰ २ । ६ । ४१) । जैसे भगवान्ने राम, कृष्ण आदि रूपोंसे अवतार लिया है, ऐसे ही जगत्-रूपसे भी अवतार लिया है । इसको अवतार इसलिये कहते हैं कि इसमें भगवान् दृश्यरूपसे दीखनेमें आ जाते हैं । अवतारके समय भगवान् अलौकिक होते हुए भी राग-द्वेषके कारण अज्ञानियोंको लौकिक दीखते हैं‒
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामयुद्धयः ।
(गीता ७ । २४)
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥
(गीता ७ । २५)
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
(गीता ९ । ११)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* भगवान् श्रद्धा-विश्वासके विषय हैं, इसलिये आस्तिक और नास्तिक‒दोनों तरहके दर्शन हैं । न्यायदर्शन और वैशेषिकदर्शन लौकिक हैं । योगदर्शन और सांख्यदर्शन लौकिक तथा अलौकिक दोनों हैं । पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा केवल अलौकिक हैं ।
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