(गत ब्लॉगसे आगेका)
तात्पर्य है कि सब जगह एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं‒‘सर्वं ब्रह्मात्मकम्’ उसमें न मैं है, न तू है, न यह है,न वह है; न भूत है, न भविष्य है, न वर्तमान है; न सर्ग है, न प्रलय है; न महासर्ग है, न महाप्रलय है; न देवता है, न मनुष्य है; न पशु है, न पक्षी है; न भूत है न प्रेत है, न पिशाच है; न जड़ है, न चेतन है; न स्थावर है, न जंगम है; कुछ भी नहीं है !एक परमात्मा ही इन सब रूपोंमें बने हुए हैं ! इस बातको दृढ़तासे मान लें, स्वीकार कर लें, यह सब साधनोंसे श्रेष्ठ साधन है । भागवत, एकादश स्कन्धके उनतीसवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोककी टीकामें एकनाथजी महाराज भगवान्की ओरसे लिखते हैं कि हे उद्धव ! सबमें मेरेको देखनेसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है‒यह मैं माँ देवकीकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ ।*
सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह बात हमारेको दीखे चाहे न दीखे, हम जानें चाहे न जानें, हमारेको अनुभव हो चाहे न हो, परन्तु यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें कि बात वास्तवमें यही सर्वोपरि है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है,वास्तविकतामें कमी नहीं है । जैसे, पहले क-ख-ग आदि अक्षरोंको सीखते हैं, फिर पुस्तकोंमें वे वैसे ही दीखने लग जाते हैं, ऐसे ही पहले केवल इस बातको मान लें कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’, फिर वैसा ही अनुभव होने लग जायगा । इसका अनुभव करनेके लिये कुछ करना नहीं है, कहीं आना-जाना नहीं है । भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय आदि जो कर रहे हैं, वे करते रहें । इसके लिये कोई नया साधन नहीं करना है, केवल दृढ़तासे स्वीकार कर लेना है कि सब कुछ परमात्मा ही हैं । कारण कि सृष्टि-रचनाके समय भगवान्ने कहींसे कोई मसाला, सामग्री नहीं मँगायी, प्रत्युत यह संकल्प किया कि मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ ‒
‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य॰ ६ । २ । ३)
‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय॰ २ । ६)
‘एकं रूपं बहुधा यः करोति’ (कठ॰ २ । २ । १२)
‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति ।’(गोपालपूर्वतापनीय॰)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* यापरी कायावाचामनें । सर्वभूतीं भगवद्धजन । हेंचि मुख्यत्वें श्रेष्ठ साधन । भक्त सज्ञान जाणती ।। ३८० ।। ब्रह्मप्राप्तिचें परम कारण हेंचि एक सुगम साधन । मजही निश्रयें मानलें जाण । देवकीची आण उद्धवा ।। ३८१ ।। (एकनाथी भागवत)
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