(गत ११ जुलाईके ब्लॉगसे आगेका)
कर्मके दो भेद हैं‒शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) । शुभ कर्मका फल अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होना है और अशुभ कर्मका फल प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होना है । कर्म बाहरसे किये जाते हैं, इसलिये उन कर्मोंका फल भी बाहरकी परिस्थितिके रूपमें ही प्राप्त होता है । परन्तु उन परिस्थितियोंसे जो सुख-दुःख होते हैं, वे भीतर होते हैं । इसलिये उन परिस्थितियोंमें सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभकर्मोंका अर्थात् प्रारब्धका फल नहीं है, प्रत्युत अपनी मूर्खताका फल है । अगर वह मूर्खता चली जाय,भगवान्पर* अथवा प्रारब्धपर† विश्वास हो जाय तो प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी चित्तमें प्रसन्नता होगी, हर्ष होगा । कारण कि प्रतिकूल परिस्थितिमें पाप कटते हैं, आगे पाप न करनेमें सावधानी आती है और पापोंके नष्ट होनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है ।
साधकको अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करना चाहिये, दुरुपयोग नहीं । अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्रीको दूसरोंके हितके लिये सेवाबुद्धिसे खर्च करना अनुकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उसका सुख-बुद्धिसे भोग करना दुरुपयोग है । ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग करना और ‘मेरे पूर्वकृत पापोंका नाश करनेके लिये,भविष्यमें पाप न करनेकी सावधानी रखनेके लिये और मेरी उन्नति करनेके लिये ही प्रभु-कृपासे ऐसी परिस्थिति आयी है’‒ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है ।
मनुष्य-शरीर सुख-दुःख भोगनेके लिये नहीं है । सुख भोगनेके स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगनेके स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं । इसलिये वे भोगयोनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है । परन्तु यह कर्मयोनि उनके लिये है जो मनुष्यशरीरमें सावधान नहीं होते, केवल जन्म-मरणके सामान्य प्रवाहमें ही पड़े हुए हैं । वास्तवमें मनुष्यशरीर सुख-दुःखसे ऊँचा उठनेके लिये अर्थात् मुक्तिकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । इसलिये इसको कर्मयोनि न कहकर ‘साधनयोनि’ ही कहना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
__________________
* लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।
तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥
‘जिस प्रकार बच्चेका पालन करने और ताड़ना करने‒दोनोंमें माताकी कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती ।’
† यद्भावि तद्भवत्येव यदभाव्यं न तद्भवेत् ।
इति निश्चितबुद्धीनां न चिन्ता बाधते क्वचित् ॥
(नारदपुराण, पूर्व ३७ । ४७)
‘जो होनेवाला है, वह होकर ही रहता है और जो न होनेवाला है,वह कभी नहीं होता‒ऐसा निश्चय जिनकी बुद्धिमें होता है, उन्हें चिन्ता कभी नहीं सताती ।’
|