(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवका असत्के साथ सम्बन्ध जोड़नेका स्वभाव अनादिकालसे बना हुआ है, जिसके कारण वह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ है और बार-बार ऊँच-नीच योनियोंमें जाता है । उस स्वभावको मनुष्य शुद्ध कर सकता है अर्थात् उसमें जो कामना, ममता और तादात्म्य हैं उनको मिटा सकता है । कामना, ममता और तादात्म्यके मिटनेके बाद जो स्वभाव रहता है, वह स्वभाव दोषी नहीं रहता । इसलिये उस स्वभावको मिटाना नहीं है और मिटानेकी आवश्यकता भी नहीं है ।
जब मनुष्य अहंकारका आश्रय छोड़कर सर्वथा भगवान्के शरण हो जाता है, तब उसका स्वभाव शुद्ध हो जाता है; जैसे‒लोहा पारसके स्पर्शसे शुद्ध सोना बन जाता है । स्वभाव शुद्ध होनेसे फिर वह स्वभावज कर्म करते हुए भी दोषी और पापी नहीं बनता (गीता १८ । ४७) । सर्वथा भगवान्के शरण होनेके बाद भक्तका प्रकृतिके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । फिर भक्तके जीवनमें भगवान्का स्वभाव काम करता है । भगवान् समस्त प्राणियोंके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) तो भक्त भी समस्त प्राणियोंका सुहद् हो जाता है‒‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) ।
इसी तरह कर्मयोगकी दृष्टिसे जब मनुष्य राग-द्वेषको मिटा देता है, तब उसके स्वभावकी शुद्धि हो जाती है, जिससे अपने स्वार्थका भाव मिटकर केवल दुनियाके हितका भाव स्वतः हो जाता है । जैसे भगवान्का स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका है, ऐसे ही उसका स्वभाव भी प्राणिमात्रका हित करनेका हो जाता है । जब उसकी सब चेष्टाएँ प्राणिमात्रके हितमें हो जाती हैं, तब उसकी भगवान्की सर्वभूतसुहृत्ता-शक्तिके साथ एकता हो जाती है । उसके उस स्वभावमें भगवान्की सुहृत्ता-शक्ति कार्य करने लगती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
|