(गत ब्लॉगसे आगेका)
तुलसी पूरब पाप तें हरि चर्चा न सुहाय ।
कै ऊँघे कै उठ चले कै दे बात चलाय ॥
सत्संगमें जायगा तो नींद आ जायगी, दूसरी बात कहना शुरू कर देगा अथवा बैठकर चल देगा; परन्तु यदि वह कुछ दिन सत्संगमें ठहर जाय तो उसके भी सत्संग लग जायगा । वह भी भजन करने लग जायगा । फिर वह सत्संग छोड़ेगा नहीं ।
एक बात मैंने सुनी है । एक आदमी यों ही हँसी-दिल्लगी उड़ानेवाला था । वह दिल्लगीमें ही कहता है कि ये देखो ये साधु ! ‘राम, राम, राम, राम, राम’ करते हैं तो दूसरे लोग कहते हैं‒हाँ भाई ! कैसे करते हैं ? तो वह फिर कहता है‒‘राम-राम-राम’ ऐसे करते हैं । वह उठकर कहीं भी जाता तो लोग कहते हैं‒हाँ बताओ, कैसे करते हैं ? तो वह फिर कहता ‘राम-राम-राम’ ऐसे करते हैं । ऐसे कहते-कहते महाराज, उसकी लौ लग गयी । वह नाम जपने लगा । इस वास्ते‒‘भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥’ किसी तरहसे आप नाम ले तो लो । फिर देखो,इसकी विलक्षणता, अलौकिकता । परन्तु सज्जनो ! बिना लिये इसका पता नहीं लगता । जैसे मिठाई जबतक मुखसे बाहर रहे, तबतक उसके मिठासको नहीं जान सकते । मिठाई खानेवाला ही मिठाईके रसको जानता है ।
शास्त्रोंसे, सन्तोंसे नाम-महिमा सुन करके हम नाममें यत्किंचित् कर सकते हैं । परन्तु उसका असली रस तब आयेगा, जब आप स्वयं लग जाओगे, और लग जाओगे भीतरसे, हृदयसे; दिखावटीपनसे नहीं अर्थात् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं । लोगोंको दिखानेके लिये भजन करता है, वह तो लोगोंका भक्त है, भगवान्का नहीं । लोग मेरेको भजनानन्दी समझें, इस वास्ते दिखाता है तो वह भगवान्का भक्त कहाँ ? भगवान्का भक्त होगा तो वह भीतरसे कैसे नाम छोड़ सकेगा । एकान्तमें अथवा जन-समुदायमें, वह नामको कैसे छोड़ सकता है ? असली लोभको वह कैसे छोड़ सकता है ? आपके सामने पैसे आ जायँ रुपये आ जायँ अथवा आपके सामने पड़े हों तो छोड़ सकते हो क्या ? कैसे छोड़ सकते हैं ?ले लोगे ! कूड़े-करकटमें पड़े हुएको भी चट उठा लोगे तो जो नामका प्रेमी है, वह नाम छोड़ देगा, यह कैसे हो सकता है ?वह एक क्षणभर भी नामका वियोग कैसे सह सकता है ?
नारदजी महाराजने भक्ति-सूत्रमें लिखा है‒‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।’अपना सब कुछ भगवान्के अर्पण तो कर देता है, पर भगवान्की, उनके नामकी थोड़ी-सी भूल हो जाय तो वह व्याकुल हो जाता है । जैसे, मछलीको जलसे दूर करनेपर वह छटपटाने लगती है और कुछ देर रखो, तो वह मर जाय, वह आरामसे नहीं रह सकती । ऐसे ही ‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ नामकी‒भगवान्की विस्मृति होनेपर परम व्याकुलता हो जायगी । उसको छोड़ नहीं सकते । भगवान्की स्मृतिका त्याग नहीं कर सकते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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