उपनिषदोंमें आया है कि मनके द्वारा
परमात्मतत्त्वको प्राप्त नहीं किया जा सकता; जैसे‒
१. यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो
मतम् ।
(केन॰ १ । ५)
२. न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छइत
नो मनः ।
(केन॰ १ । ३)
३. नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो
न चक्षुषा ।
(कठ॰ २ । ३ । १२)
परन्तु इसके साथ ही मनके द्वारा परमात्मतत्त्वको
प्राप्त करनेकी भी बात आयी है; जैसे‒
१. मनसैवानुद्रष्टव्यम् (बृहदा॰ ४ । ४ । १९)
२. मनसैवेदमाप्तव्यम् (कठ॰ २ । १ । ११)
‒इन दोनों बातोंका सामंजस्य कैसे हो, इसपर कुछ विचार किया जाता है ।
परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेके साधन
दो प्रकारके हैं‒करणसापेक्ष अर्थात् क्रियाप्रधान साधन और करणनिरपेक्ष अर्थात् विवेकप्रधान
साधन । करणसापेक्ष साधनमें अन्तःकरणकी प्रधानता रहती है और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेकपूर्वक
अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेदकी प्रधानता रहती है । अतः उपनिषदोंमें आये ‘यन्मनसा न मनुते’ आदि पदोंमें करणनिरपेक्ष साधनकी बात कही गयी है और ‘मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ पदमें करणसापेक्ष साधन (ध्यानयोग) की बात कही गयी है ।
साधन चाहे करणसापेक्ष हो, चाहे करणनिरपेक्ष हो, परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करणनिरपेक्षतासे अर्थात् विवेककी
प्रधानतासे ही होती है । कारण कि परमात्मतत्त्व करणसे अतीत है; अतः कोई भी करण वहाँतक नहीं पहुँचता ।
दृष्टान्तरूपसे यह कहा जा सकता है कि
‘यन्मनसा न मनुते’ आदि पदोंमें फलव्याप्ति है और ‘मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ पदमें वृत्तिव्याप्ति है । परन्तु दार्ष्टान्तरूपसे यह
बात ठीक नहीं बैठती । वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें न वृत्तिव्याप्ति चलती
है, न फलव्याप्ति ।
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें वृत्तिव्याप्ति
तभी हो सकती है, जब वह वृत्ति (मन-बुद्धि) का विषय हो
। परन्तु वह वृत्तिका विषय है ही नहीं; वृत्ति वहाँतक पहुँचती ही नहीं । करणरहित परमात्मतत्त्वमें वृत्ति (करण) कैसे सम्भव
है ? अनुत्पन्न निर्विकल्प तत्त्वमें उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वृत्ति कैसे हो सकती
है ? यदि चेतन तत्त्वमें वृत्ति मानें तो वह गुणातीत एवं निर्विकार
कैसे हुआ ?
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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