(गत ब्लॉगसे आगेका)
११. चुप-साधन
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका
श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ साधन है‒चुप होना अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करना । यह सर्वोपरि करण-निरपेक्ष
साधन है । चिन्तन करनेसे ही संसारका सम्बन्ध चिपकता है । कारण कि चिन्तन करने, वृत्ति लगानेका अर्थ है‒नाशवान्, परिवर्तनशील वस्तुको महत्त्व देना । नाशवान्को महत्त्व
देना, उसकी आवश्यकता मानना, उसकी सहायता लेना ही तत्त्वप्राप्तिमें मुख्य बाधा है । अविनाशीकी प्राप्ति नाशवान्के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत नाशवान्के त्यागसे होती है
। जडके
द्वारा चेतनकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? परिवर्तनशीलके द्वारा अपरिवर्तनशीलकी
प्राप्ति कैसे हो सकती है ? क्षणभंगुरके द्वारा सर्वथा निर्विकार
तत्त्वकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? नाशवान्, जड, असत्, परिवर्तनशील, क्षणभंगुरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर तत्त्वकी प्राप्ति स्वतः ही है ! इसलिये नाशवान्को महत्त्व देनेका, उसकी सहायता लेनेका भाव साधकको आरम्भसे
ही नहीं रखना चाहिये । शास्त्रमें आया है‒‘देवो भूत्वा देवं
यजेत्’ ‘देवता होकर देवताका पूजन करे ।’ अतः अक्रिय एवं अचिन्त्य होकर ही अक्रिय एवं अचिन्त्य
तत्त्वको प्राप्त करना चाहिये ।
गीतामें आया है‒
आत्मसंस्थ मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्
।
(६ । २५)
‘परमात्मस्वरूपमें मन
(बुद्धि) को सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे ।’
तात्पर्य है कि सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व ‘है’ (सत्ता) -रूपसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । देश, काल आदिका तो अभाव है, पर परमात्मतत्त्वका नित्य भाव है । इस प्रकार साधक पहले
मन-बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि ‘परमात्मतत्त्व है’ । फिर इस निश्चयको भी छोड़ दे और चुप
हो जाय अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करे । न तो संसारका चिन्तन करे, न स्वरूपका चिन्तन करे और न परमात्माका
ही चिन्तन करे । कुछ भी चिन्तन करेगा तो संसार आ ही जायगा । कारण कि कुछ भी चिन्तन करनेसे चित्त
(करण) साथमें रहेगा । करण साथमें रहेगा तो संसारका त्याग नहीं होगा; क्योंकि करण भी संसार ही है । इसलिये ‘न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (कुछ भी चिन्तन न करे) ‒इसमें करणसे सम्बन्ध-विच्छेद है; क्योंकि जब करण साथमें नहीं
रहेगा, तभी असली ध्यान होगा । सूक्ष्म-से-सूक्ष्म चिन्तन करनेपर भी
वृत्ति रहती ही है, वृत्तिका अभाव नहीं होता । परन्तु कुछ
भी चिन्तन करनेका भाव न रहनेसे वृत्ति स्वतः शान्त हो जाती है । अतः साधकको चिन्तनकी
सर्वथा उपेक्षा करनी है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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