(गत ब्लॉगसे आगेका)
रस्सीमें साँप दीखता है‒इसमें रज्जूपहित
(रज्जुकी उपाधिवाला) चेतन ‘अधिष्ठान’ है, साँप ‘अध्यस्त’ है और रस्सीमें साँपका दीखना ‘अध्यास’ है । अध्यस्त वस्तुको लेकर अधिष्ठानका ज्ञान करना करणसापेक्ष साधन है और विवेककी
प्रधानतासे अध्यस्त वस्तुका बाध (अत्यन्त अभावका अनुभव) करके अधिष्ठान (चेतन तत्त्व)
में स्थित होना करणनिरपेक्ष साधन है ।
करणसापेक्ष साधनमें अभ्यास
मुख्य है और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेकका आदर मुख्य है । अभ्यासमें क्रिया है और विवेक
क्रियारहित है ।
करणसापेक्ष साधनमें ‘क्रिया’ (करने) की मुख्यता है और करणनिरपेक्ष साधनमें ‘भाव’ (मानने) और ‘बोध’ (जानने) की मुख्यता है ।
करणसापेक्ष साधनमें अभ्यास मुख्य होनेके
कारण तत्काल सिद्धि नहीं मिलती[*] और करणनिरपेक्ष साधनमें विवेकका आदर मुख्य होनेके कारण
तत्काल सिद्धि मिलती है । कारण कि करणसापेक्ष साधनमें तो एक अवस्था बनती है, पर करणनिरपेक्ष साधनमें अवस्था नहीं बनती, प्रत्युत अवस्थासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है तथा अवस्थातीत
स्वतःसिद्ध तत्त्वका अनुभव होता है ।
करणसापेक्ष साधनमें मुमुक्षाकी
मुख्यता है और करण-निरपेक्ष साधनमें जिज्ञासाकी मुख्यता है । मुमुक्षामें बन्धनसे छूटनेकी
इच्छा रहती है और जिज्ञासामें तत्त्वको जाननेकी इच्छा रहती है । अतः मुमुक्षामें बन्धनके
दुःखकी प्रधानता है और जिज्ञासामें सत्-असत्के विवेककी प्रधानता है ।
मनको भगवान्में लगाना करणसापेक्ष साधन
है और संसारके सम्बन्धका निषेध करके ‘मैं भगवान्का हूँ तथा भगवान् मेरे हैं’‒इस प्रकार अपने-आपको भगवान्में लगाना करणनिरपेक्ष साधन है ।
करणसापेक्ष साधनमें मनको साथ लेकर स्वरूपमें
स्थिति होती है‒‘यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।’ (गीता ६ । १८), अतः मनके साथ सम्बन्ध रहनेसे योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना
रहती है‒‘योगाच्चलितमानसः’ (गीता ६ । ३७) । परन्तु करणनिरपेक्ष साधनमें मनके
साथ सम्बन्ध न होनेके कारण योगभ्रष्ट (चलितमना) होनेकी सम्भावना रहती ही नहीं । करणनिरपेक्ष
साधनमें पहलेसे ही मनके साथ सम्बन्धका त्याग रहता है ।
जैसे आरम्भमें कोई साधक सकाम होता है
और कोई निष्काम होता है, पर सकाम साधकको अन्तमें निष्काम होनेपर
ही तत्त्वका अनुभव होता है । ऐसे ही आरम्भमें कोई करणसापेक्ष (क्रियाप्रधान) साधन करता
है और कोई करणनिरपेक्ष (विवेकप्रधान) साधन करता है पर करणसापेक्ष साधन करनेवालेको अन्तमें
करणनिरपेक्ष होनेपर ही तत्त्वका अनुभव होता है; क्योंकि तत्त्व करणरहित है । दोनोंमें भेद इतना ही है कि करणसापेक्ष साधनमें पराधीनता
रहती है, अहम्का जल्दी नाश नहीं होता, साधक अन्तकालमें योगभ्रष्ट हो सकता है और तत्त्वकी प्राप्ति
देरीसे तथा कठिनतासे होती है । परन्तु करणनिरपेक्ष साधनमें स्वतन्त्रता रहती है, अहम्का नाश जल्दी होता है, योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती ही नहीं और तत्त्वकी प्राप्ति
जल्दी तथा सुगमतासे हो जाती है[†] ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
[*] तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः
। स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽ ऽसेवितो दृढभूमिः । (योगदर्शन १ । १३-१४)
‘चित्तकी स्थिरताके लिये प्रयत्न करना अभ्यास है । वह अभ्यास
बहुत समयतक निरन्तर और आदरपूर्वक सांगोपांग सेवन किया जानेपर दृढ़ अवस्थावाला होता है
।’
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