(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिस प्रकार प्रकाश बल्बमें नहीं होता, अपितु बल्बमें आता है, उसी प्रकार यह अनादिसिद्ध विवेक भी बुद्धिमें पैदा नहीं होता, अपितु बुद्धिमें आता है । इन्द्रियदृष्टिकी अपेक्षा बुद्धिदृष्टिकी
प्रधानता होनेसे विवेक विशेष स्फुरित होता है, जिससे सत्की सत्ता और असत्के अभावका अलग-अलग ज्ञान हो जाता है । विवेकपूर्वक
असत्का त्याग कर देनेपर जो शेष रहता है, वही तत्त्व है । तत्त्वदृष्टिसे देखनेपर एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वके सिवा
संसार, शरीर, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता
सत्यत्वेन किंचिन्मात्र भी नहीं रहती । तब एकमात्र ‘वासुदेवः सर्वम्’‒‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका बोध हो जाता है ।
इस प्रकार यह संसार बहिकरण-(इन्द्रियाँ-)
से देखनेपर नित्य एवं सुखदायी, अन्तःकरण-(बुद्धि-) से देखनेपर अनित्य
एवं दुःखदायी तथा तत्त्वसे देखनेपर परमात्मस्वरूप दिखायी देता है ।
साधककी विवेकदृष्टि और सिद्धकी तत्त्वदृष्टिमें
अन्तर यह है कि विवेकदृष्टिसे सत् और असत्-दोनों अलग-अलग दीखते हैं और सत्का अभाव
नहीं एवं असत्का भाव नहीं‒ऐसा बोध होता है । इस प्रकार विवेकदृष्टिका परिणाम होता
है‒असत्के त्यागपूर्वक सत्की प्राप्ति । जहाँ सत्की प्राप्ति होती है वहाँ तत्त्वदृष्टि
रहती है । तत्त्वदृष्टिसे संसार कभी सत्यरूपसे प्रतीत नहीं होता । तात्पर्य है कि विवेकदृष्टिमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं और तत्त्वदृष्टिमें
केवल सत् रहता है ।
विवेकको महत्त्व देनेसे इन्द्रियाँका
ज्ञान लीन हो जाता है । उस विवेकसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, वहाँ विवेक भी लीन हो जाता है ।
वास्तविक दृष्टि‒वस्तुतः तत्त्वदृष्टि ही वास्तविक
दृष्टि है । इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि वास्तविक नहीं है; क्योंकि जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी ये दृष्टियाँ हैं । अतः ये दृष्टियाँ सांसारिक
अथवा पारमार्थिक विषयमें पूर्ण निर्णय नहीं कर सकतीं । तत्त्वदृष्टिमें ये सब दृष्टियाँ
लीन हो जाती हैं । जैसे रात्रिमें बल्ब जलानेसे प्रकाश होता है; परंतु वही बल्ब यदि मध्याह्नकालमें (दिनके प्रकाशमें)
जलाया जाता है तो उसके प्रकाशका भान तो होता है, पर उस प्रकाशका (सूर्यके प्रकाशके सामने) कोई महत्त्व नहीं रहता; वैसे ही इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि अज्ञान (अविद्या)
अथवा संसारमें तो काम करती हैं; पर तत्त्वदृष्टि हो जानेपर इन दृष्टियोंका
उसके (तत्त्वदृष्टिके) सामने कोई महत्त्व नहीं रह जाता । ये दृष्टियाँ नष्ट तो नहीं
होतीं, पर प्रभावहीन हो जाती हैं । केवल
सच्चिदानन्दरूपसे एक ज्ञान शेष रह जाता है; उसीको भगवत्तत्त्व या परमात्मतत्त्व
कहते हैं । वही वास्तविक तत्त्व है । शेष सब अतत्त्व हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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