(गत ब्लॉगसे आगेका)
व्यवहारके विविध रूप
साधारण (विषयी) पुरुष, विवेकी (साधक) पुरुष और तत्त्वज्ञ (सिद्ध) पुरुष‒तीनोंके
भाव अलग-अलग होते हैं । साधारण पुरुष संसारको सत् मानकर राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति
या निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं । इसके आगे विचारदृष्टिकी प्रधानतावाले विवेकी पुरुषका
व्यवहार राग-द्वेषरहित एवं शास्त्रविधिके अनुसार होता है[1] । विवेकदृष्टिकी प्रधानता रहनेके कारण‒किंचित राग-द्वेष
रहनेपर भी उसका (विवेकदृष्टि-प्रधान साधकका) व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक नहीं होता अर्थात्
वह राग-द्वेषके वशीभूत होकर व्यवहार नहीं करता[2] । उसमें राग-द्वेष बहुत कम‒नहींके बराबर रहते हैं । जितने
अंशमें अविवेक रहता है, उतने ही अंशमें राग-द्वेष रहते हैं
। जैसे-जैसे विवेक जाग्रत् होता जाता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं और वैराग्य बढ़ता चला जाता है । वैराग्य
बढ़नेसे बहुत सुख मिलता है; क्योंकि दुःख तो रागमें ही है[3] । पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर राग-द्वेष
पूर्णतः मिट जाते हैं । विवेकी पुरुषको संसारकी सत्ता दर्पणमें
पड़े हुए प्रतिबिम्बके समान असत् दीखती है । इसके आगे तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञ
पुरुष स्वप्नकी स्मृतिके समान संसारको देखता है । इसलिये बाहरसे व्यवहार समान
होनेपर भी विवेकी और तत्त्वज्ञ पुरुषके भावोंमें अत्यन्त अन्तर रहता है ।
साधारण पुरुषमें इन्द्रियोंकी, साधक पुरुषमें विवेक-विचारकी और सिद्ध पुरुषमें स्वरूपकी प्रधानता रहती है । साधारण
पुरुषके राग-द्वेष पत्थरपर पड़ी लकीरके समान (दृढ़) होते हैं । विवेकी पुरुषके राग-द्वेष
आरम्भमें बालूपर पड़ी लकीरके समान एवं विवेककी पूर्णता होनेपर जलपर पड़ी लकीरके समान
होते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुषके राग-द्वेष आकाशमें पड़ी लकीरके समान (जिसमें लकीर खिंचती
ही नहीं, केवल अँगुली
दीखती है) होते हैं; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारकी
स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
(गीता १६ । २४)
‘तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र
ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ
ह्यस्य परिपन्धिनौ ॥
(गीता ३ । ३४)
‘इन्द्रिय, इन्द्रियके अर्थमें अर्थात्
प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके
वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण-मार्गमें विघ्र करनेवाले
महान् शत्रु हैं ।’
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसड्गेन चानघ ॥
(गीता १४
। ६)
‘हे निष्पाप अर्जुन ! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल
होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है । वह सुखके सम्बन्ध (भोग) से और ज्ञानके
सम्बन्ध-(अभिमान-) से साधकको बाँधता है ।’
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