(गत ब्लॉगसे आगेका)
यदि साधककी
समझमें यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्गसे भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो सकती है[1] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । उनका कभी
कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनताका प्रश्र ही नहीं है । नित्यप्राप्त परमात्माकी
प्राप्तिमें कठिनाई प्रतीत होनेका प्रधान कारण है‒सांसारिक सुखकी इच्छा । इसी
कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे
माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको
परिश्रम-साध्य एवं कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनता
नहीं है, प्रत्युत संसारके त्यागमें कठिनता है, जो कि निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्वका सुगमतासे अनुभव करनेके लिये संसारसे माने हुए
संयोगका वर्तमानमें ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है, जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुखकी
इच्छाका परित्याग कर दिया जाय ।
तत्त्व-दृष्टिसे एक परमात्मतत्त्वके
सिवा अन्य कुछ है ही नहीं-ऐसा ज्ञान हो जानेपर मनुष्य फिर जन्म-मरणके चक्रमें नहीं
पड़ता । भगवान् कहते हैं‒
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि
पाण्डव ।
(गीता ४ । ३५)
‘जिसे जानकर फिर तू इस
प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।’
ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो
सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
(गीता
५ । ३)
‘हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी
आकाश करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे
मुक्त हो जाता है ।’
ज्ञानयोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒
युञ्जन्नेवं सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
(गीता ६ ।
२८)
‘अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक
ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है ।’
भक्तियोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(गीता
८ । १४)
‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर
स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको
सुगमतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’
[ इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये
गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकमें ‘गीतामें तीनों योगोंकी समानता’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । ]
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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