मानवमात्रका कल्याण करनेके लिये तीन योग हैं‒कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग । यद्यपि तीनों ही योग कल्याण करनेवाले
हैं, तथापि इनमें एक सूक्ष्म भेद है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग‒दोनों
साधन हैं और भक्तियोग साध्य है । भक्तियोग सब योगोंका अन्तिम फल है । कर्मयोग
तथा ज्ञानयोग‒दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । शरीर और शरीरी‒दोनों हमारे जाननेमें
आते हैं, इसलिये ये दोनों ही लौकिक हैं । परन्तु परमात्मा हमारे जाननेमें
नहीं आते, प्रत्युत केवल माननेमें आते हैं,
इसलिये वे अलौकिक हैं । शरीरको लेकर कर्मयोग,
शरीरीको लेकर ज्ञानयोग और परमात्माको लेकर भक्तियोग चलता है
। कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है ।
गीताने कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंको समकक्ष बताया है‒‘लोकेऽस्मिद्धिविधा
निष्ठा’ (३ । ३) । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है‒‘एकमप्यास्थितः
सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्’ (गीता ५ । ४), ‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’ (गीता
५ । ५) । साधक चाहे कर्मयोगसे चले,
चाहे ज्ञानयोगसे चले,
दोनोंका एक ही फल होता है ।
कर्मोंसे मनुष्य क्रिया और पदार्थमें फँसता है,
पर कर्मयोग इन दोनोंसे ऊँचा उठाता है । इसलिये कल्याण करनेकी शक्ति कर्ममें नहीं है, प्रत्युत
कर्मयोगमें है; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है‒‘योगः
कर्मसु कौशलम्’ (गीता २ । ५०) । साधारण मनुष्य कर्म करते ही रहते हैं और कर्मोंका फल भी भोगते
ही रहते हैं अर्थात् जन्मते-मरते रहते हैं । कर्म करनेसे उनका कल्याण नहीं होता । परन्तु
कर्मयोगसे कल्याण हो जाता है । कर्मयोगमें निःस्वार्थभावसे सेवा करनेपर संसारका त्याग
हो जाता है । सांख्ययोगमें साधक सबको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित होता है । कर्मयोगमें
करनेकी मुख्यता है और सांख्ययोगमें विवेक-विचारकी मुख्यता है । इस प्रकार कर्मयोग और
सांख्ययोगमें बड़ा फर्क है । फर्क होते हुए भी दोनोंका फल एक ही है । दोनोंके द्वारा
संसारसे ऊँचा उठनेपर मुक्ति हो जाती है । ये दोनों लौकिक साधन हैं क्योंकि शरीर जड़
और शरीरी (चेतन)‒ये दोनों विभाग हमारे देखनेमें आते हैं,
पर भगवान् देखनेमें नहीं आते । भगवान्को
मानें या न मानें, यह हमारी मरजी है । इसमें विचार नहीं चलता । भगवान्
हैं‒ऐसा मानना ही पड़ता है । फिर वह माना हुआ नहीं रहता, उसका
अनुभव हो जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे |