(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्संग करनेवालोंका अनुभव है कि भोग और संग्रहकी आसक्ति कम होती
है और मिटती है । जैसे, हमारी वृत्तिमें क्रोध ज्यादा था । अतः थोड़ी-सी बातमें क्रोध
आ जाता था, बड़े जोरसे आता था और काफी देरतक रहता था । परन्तु सत्संग करते-करते
वह क्रोध कम होता है, थोड़ी-सी बातमें नहीं आता,
जोरसे नहीं आता और कम देर ठहरता है । जब छोटी-छोटी कई बातें
इकट्ठी हो जाती हैं, तब सहसा किसी बातपर जोरसे क्रोधका भभका आता है । परन्तु सत्संग
करते-करते वह भी मिट जाता है । क्रोधका स्वरूप है कि जिसपर क्रोध आता है,
उसका अनिष्ट चाहता है । सत्संग करते-करते किसीका अनिष्ट करनेकी
चाहना मिट जाती है । सत्संग करनेवालेको कभी क्रोध आ जाय तो उसमें होश रहता है और वह
नरक देनेवाला नहीं होता । काम, क्रोध और लोभ‒ये तीनों नरकोंके दरवाजे हैं[*]
। इनमें फँसे हुए मनुष्य सीधे नरकोंमें जाते हैं । उनको नरकोंमें
जानेसे कोई अटकानेवाला नहीं है । परन्तु सत्संग करनेवालोंमें काम,
क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष कम हो जाते हैं । वह काम-क्रोधादिके वशीभूत नहीं
होता । वह अन्यायपूर्वक, झूठ, कपट, जालसाजी, बेईमानीसे धन इकट्ठा नहीं करता । वह उतना ही लेता है,
जितनेपर उसका हक लगता है । पराये हककी चीज नहीं लेता । काम-क्रोधादिके
वशीभूत होनेसे अन्याय-मार्गमें प्रवेश हो जाता है,
जिसके फलस्वरूप नरकोंकी प्राप्ति होती है । परन्तु सत्संग करनेसे
ये काम-क्रोधादि दोष क्रमशः पत्थर, बालू, जल और आकाशकी लकीरकी तरह कम होते-होते मिट जाते हैं ।
पत्थरपर जो लकीर पड़ जाती है, वह कभी मिटती नहीं । बालूकी लकीर जब हवा चलती है,
तब बालूसे ढककर मिट जाती है । जलपर लकीर खिंचती हुई तो दीखती
है, पर जलपर लकीर बनती नहीं । परन्तु आकाशमें लकीर खींचें तो केवल अँगुली ही दीखती
है, लकीर बनती ही नहीं । इस प्रकार जब काम-क्रोधादि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते,
तब बन्धन मिट जाता है और परमात्मामें स्थिति हो जाती है ।
इस प्रकार सत्संग करनेसे दोष कम होते हैं । अगर दोष
कम नहीं होते तो असली सत्संग नहीं मिला है । भगवान्की कथा तो किसीसे भी सुनें,
सुननेसे लाभ होता है । अगर कथा कहनेवाला प्रेमी भक्त हो तो बहुत
विलक्षणता आती है । परन्तु तात्त्विक विवेचन जीवन्मुक्त,
तत्त्वज्ञ महापुरुषसे सुननेपर ही लाभ होता है । जीवन्मुक्त,
तत्वज्ञ सन्त-महात्माओंके संगसे बहुत विलक्षण एवं
ठोस लाभ होता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्
॥
(गीता
१६ । २१)
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