भगवान्के कर्मोंमें अपना निजी कोई स्वार्थ या कामना नहीं होती
। उनके कर्म निर्मल पापरहित होते हैं । उनके उपदेश,
भाव और आचरणोंका अनुकरण करनेसे पापी-से-पापी भी परम विशुद्ध
तरन-तारन बन जाता है । इसलिये भगवान्के कर्म परम विशुद्ध और निर्विकार होते हैं ।
भगवान्के कर्म अलौकिक होते हैं । जहाँ देवताओंकी भी कल्पना
नहीं पहुँच पाती और जो बिलकुल असम्भव होते हैं,
उन कर्मोंको भी वे सम्भव कर दिखाते हैं । उनकी तो माया ही अघटनघटनापटीयसी
है, फिर उन मायाके एकमात्र अधीश्वर परमात्माके कर्म सर्वथा अलौकिक हों,
इसमें तो कहना ही क्या है ?
जैसे सर्वत्र परिपूर्ण सामान्य अग्नि साधनोंसे साकाररूपमें प्रकट
हो जाता है, उसी प्रकार वह सर्वत्र अस्तिरूपसे प्रतीत होनेवाला निर्गुण सत्-तत्त्व
ही अपनी अहैतुकी कृपा और भक्तोंके प्रेमके वश होकर दिव्य विग्रहरूपमें प्रकट होता है
।
प्रकाश-तत्त्व
भगवान्के विग्रहका प्रकाश दिव्य होता है । वह निर्गुण सर्वव्यापी चिन्मयस्वरूप ही स्थूलरूपसे प्रकाशरूपमें
आता है । वह प्रकाश प्राकृत नेत्रोंका विषय नहीं होता,
दिव्य चक्षुसे ही देखा जा सकता है । भगवान्ने अर्जुनसे कहा
है‒
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव
स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
(गीता
११ । ८)
‘परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रोंद्वारा देखनेमें निःसंदेह
समर्थ नहीं है; इसीसे मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता
हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योग-शक्तिको देख ।’
यद्यपि अवतारके समय भगवान्का विग्रह सबके सामने होनेसे सभीको
उनके दर्शन होते हैं; परंतु उनको दर्शन होते हैं योगमायासमावृत साधारण मनुष्यरूपके
ही, दिव्यरूपके नहीं ।
भगवान्का वह दिव्य प्रकाश सूर्य,
चन्द्रमा आदिके प्रकाशसे अत्यन्त महान् और विलक्षण होता है ।
संजयने गीतामें कहा है‒
दिवि सूर्यसहस्रस्य
भवेद् युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्वाद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
(११ । १२)
‘आकाशमें हजार सूर्योंके एक साथ उदय होनेसे उत्पन्न जो प्रकाश
हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्माके प्रकाशके सदृश कदाचित्
ही हो ।’
(अपूर्ण)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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