(गत आगेके ब्लॉगमें)
आजतक बड़े-बड़े विद्वान् आचार्य भी इसका निर्णय नहीं कर सके ।
इसलिये साधकके लिये इस विवादमें न पड़ना ही बढ़िया है । अगर वह उनका निर्णय करनेमें लगेगा
तो इससे लाभ तो कुछ होगा नहीं, पर समय अवश्य बरबाद हो जायगा । आजकल कहाँ इतना समय है
? कहाँ इतना ज्ञान है
? कहाँ इतनी बुद्धि है
? कहाँ इतनी सामर्थ्य है
? कहाँ इतनी योग्यता है
? इसलिये सन्तोंने ठीक ही कहा
है‒
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥
(मानस,
बाल॰ ६)
तेरे भावैं जो करो, भलौ बुरौ संसार
।
‘नारायन’ तू बैठि
के अपनौ भुवन बुहार ॥
भगवान्ने भी गीतामें शास्त्र-जालको ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’
कहा है[1] । इसलिये शास्त्रोंमें
कोई बात प्रक्षिप्त दीखे अथवा अपनी समझमें न आये,
उस बातको निकाल देना अनधिकार चेष्टा है और बड़ी हानिकी बात है
। साधकके लिये यही उचित है कि वह शास्त्रीय विवादमें न पड़े
और जो बात उसको निर्विवाद दीखे,
उसके अनुसार आचरण करो[2] और जो बात विवादास्पद दीखे, उसको
छोड़ दे । जैसे,
परीक्षामें चतुर विद्यार्थी निर्विवाद प्रश्रोंका उत्तर पहले
लिखता है, पीछे विवादास्पद प्रश्नोंपर विचार करता है । अगर वह पहले ही
विवादास्पद प्रश्नोंको लेकर बैठ जायगा तो समय निकल जायगा और वह फेल हो जायगा ।
अगर कोई अनुभवी सन्त-महापुरुष दीखे तो उसकी आज्ञाके अनुसार अपना
जीवन बनाना सबसे बढ़िया है । सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें भी परस्पर मतभेद होता है;
क्योंकि वे वही बात कहते हैं,
जो उस समयके अनुसार आवश्यक हो । इसलिये उनकी बातोंमें भी जो
बात निर्विवाद हो, उसको अपनाना चाहिये;
जैसे‒नामजप, भगवत्स्मरण, सेवा, बुराईका त्याग, किसीका अहित न करना आदि निर्विवाद बातें हैं,
जो सब समय पालन करनेयोग्य हैं ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवास्थ्यसि ॥
(गीता
२ । ५३)
‘जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी
बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी,
उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा ।’
एतच्चतुर्विधं प्राहुः
साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
(मनु॰ २ । १२)
‘वेद,
स्मृति,
सदाचार और (अपनेमें निष्कामभाव तथा मात्र जीवोंके
हितकी दृष्टिसे) जो अपनेको ठीक जँचे‒ये चार धर्मके साक्षात् लक्षण हैं ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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