(गत ब्लॉगसे
आगेका)
हम परमात्माके हैं, इसलिये उनकी प्राप्तिमें उत्साह होना चाहिये
। हम उनके हैं, वे हमारे हैं । संसारमें शरीर बदलता है तो माँ-बाप भी बदलते हैं, भाई भी बदलते हैं, स्त्री भी बदलती है, पुत्र भी बदलता है । परन्तु भगवान् कभी नहीं बदलते, उनका
सम्बन्ध कभी नहीं बदलता । इसलिये उनकी प्राप्ति करना अपने घरपर पहुँचना है । अतः साधकको
यह बात निश्चित कर लेनी चाहिये कि यह संसार पराया घर है, अपना
घर नहीं है । संसारमें जो मोह हुआ है, आसक्ति हुई है,
कामना हुई है वे सब मिटनेवाली चीजें हैं, पर भगवान्का सम्बन्ध मिटनेवाला है ही नहीं । इसको हम भूल जायँ तो भी यह मिटेगा नहीं
।
इतने बड़े संसारमें हमारे लायक कोई वस्तु है ही नहीं । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु हमारी नहीं है और हम किसीके नहीं हैं‒यह बात साधकको दृढ़तासे धारण कर लेनी
चाहिये; क्योंकि यह वास्तवमें है । हम परमात्माके हैं, अतः परमात्माकी प्राप्ति करना नया काम नहीं है । नया काम तो संसारकी प्राप्ति
करना है । संसारमें नये-नये शरीर मिलते ही रहते हैं । कभी हम
मनुष्य बनते हैं, कभी पशु बनते हैं, कभी
पक्षी बनते हैं, कभी जलचर होते हैं, कभी
थलचर होते हैं, कभी नभचर होते हैं; कभी
जरायुज होते हैं, कभी स्वेदज होते हैं, कभी अण्डज होते हैं, कभी उद्भिज्ज होते हैं । जबतक परमात्माकी
प्राप्ति नहीं होगी, तबतक इस प्रकार परिवर्तन होता ही रहेगा ।
हम संसारके नहीं हैं, हम परमात्माके हैं‒यह ज्ञान मनुष्यको ही होता है । अन्य योनियोंमें यह ज्ञान
नहीं है कि हम किसके हैं ! इसलिये ‘मैं तो परमात्माका हूँ’‒यह बात साधकमें स्वतः-स्वाभाविक होनी चाहिये
।
परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है । कठिन तो संसारकी प्राप्ति है । कारण कि जो
वस्तु परायी होती है, उसीकी प्राप्ति कठिन होती है । अपनी वस्तुकी प्राप्तिमें क्या
कठिनता ? बालकके लिये माँकी गोदीमें जाना क्या कठिन है
? भगवान् हमारे वास्तविक माता-पिता हैं‒‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’, ‘माता च कमला देवी
पिता देवो जनार्दनः ।’ संसारमें तो प्रत्येक योनिमें नये-नये माँ-बाप, भाई-बन्धु, कुटुम्बी बनाने पड़ते हैं, पर भगवान् नये नहीं
बनाने पड़ते । भगवान् तो वे-के-वे ही रहते
हैं । वे सदा ही हमारे हैं और हम सदा ही उनके हैं । यही हमारी असली पहचान है ।
संसारकी कोई भी वस्तु हमारी नहीं है । जो हमारे नजदीक-से-नजदीक है,
वह शरीर भी हमारा नहीं है । शरीरमें रहनेवाले मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण आदि भी हमारे नहीं हैं । नजदीक-से-नजदीक शरीरसे लेकर दूर-से-दूर ब्रह्मलोकतक
कोई भी वस्तु हमारी नहीं है । हम ब्रह्मलोकतक चले जायँ
तो भी वहाँसे लौटकर आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८ । १६) । वहाँसे लौटकर आनेका कारण यही है कि हम
वहाँके नहीं हैं और वे हमारे नहीं हैं । हम भगवान्के अंश हैं,
संसारके नहीं, इसलिये संसार छूट जाता है । बड़ी
मेहनतसे कमाया हुआ धन छूट जाता है । बनाया हुआ मकान छूट जाता है । कुटुम्ब-परिवार छूट जाता है । कारण कि यह हमारी वस्तु नहीं है । यह हमारा देश नहीं
है । यह परदेश है । हम स्वयं अपरिवर्तनशील हैं; अतः जिसमें परिवर्तन
नहीं होता, वही हमारा देश है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे