अब नीचे एक यन्त्र लिखा जाता है । इससे अपनी वृत्तियोंको भगवान्की
ओर लगाकर इस गूढ़ तत्त्वको कुछ समझा जा सकता है ।
वैसे तो परमात्माके स्वरूप अनन्त है,
पर समझनेके लिये यहाँ तीन रूप बतलाये जाते हैं‒(१) निर्गुण-निराकार,
(२) सगुण-निराकार और (३) सगुण-साकार
। परमात्मा निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं तथा सगुण-निर्गुण भी हैं और वे इन सबसे भिन्न भी
हैं ।
निगुण-निराकार-तत्त्व
परमात्माका निर्गुण-तत्त्व मन-वाणीका अविषय है । वह सत्-असत्से
विलक्षण है । भगवान्ने गीतामें कहा है‒
ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् तन्नासदुच्यते ॥
(१३ । १२)
‘जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको
प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा । वह आदिरहित ब्रह्म न सत्
ही कहा जाता है, न असत् ही ।’
उस परमात्माको असीम,
अपार, अनन्त बतलाया जाता है । पर उसे असीम और आदि-अन्तसे रहित कहना
भी देश-कालको स्वीकार करके ही है । किंतु परमात्मा देश-कालसे परिच्छिन्न नहीं है ।
वास्तवमें वह देश, काल, वस्तुसे
सर्वथा अतीत है । वहाँ वाणी नहीं पहुँच सकती । इसलिये इन नामोंसे कहना देश-कालको लेकर
केवल संकेत करनामात्र ही है । उसे निर्गुण-निराकार कहा जाता है । वहाँ सत्त्व,
रज, तम आदि कोई गुण नहीं है,
उसकी कोई आकृति नहीं है, न कोई नाम ही है । वह तो इन गुणोंसे
सर्वथा अतीत और नाम-रूपसे रहित ही है । उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता । उसे सच्चिदानन्द कहते हैं‒यह लक्षण है । ब्रह्म कहते हैं‒यह नाम
है । निर्गुण-निराकार कहते हैं‒यह रूप है । पर यह कैसा रूप है ?
अरूप ही रूप है । इसका इसी तरह वर्णन किया जाता है । वास्तवमें
तो निर्गुण-निराकारका वर्णन हो ही नहीं सकता । जो कुछ भी वर्णन किया जाता है, वह गुणोंको
लेकर ही किया जाता है । केवल लक्ष्य निर्गुणका रहता है, क्योंकि वर्णन करनेकी सामग्रियाँ‒इन्द्रिय,
वाणी, मन, बुद्धि आदि सब मायिक ही हैं । उस परमात्माके तत्त्वको समझानेके
लिये शास्त्रकारोंने दो तरहके विशेषण दिये हैं‒(१) विधेय और (२) निषेध । विधेय विशेषण
उन्हें कहते हैं, जो परमात्माके स्वरूपके साक्षात् द्योतक होते हैं;
पर वे भी परमात्मा अनिर्देश्य होनेके कारण तटस्थ ही रह जाते
हैं । और निषेध विशेषण उन्हें कहते हैं, जो परमात्मामें आकार,
गुण, विनाश, क्रिया, पदार्थ, देश, काल आदिका अभाव बतलाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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