चित्-तत्त्व
‘चित्’
से चेतन, बोध, ज्ञान
समझना चाहिये । चेतन वह है, जहाँ जड़ताकी कभी किसी तरह भी जरा भी सम्भावना नहीं
है । वह चेतन तो केवल चिन्मय बोधस्वरूप ही है । जड़ताका अत्यन्त अभाव होनेके कारण उसमें ज्ञातापनका आरोप भी
नहीं हो सकता । ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, द्रष्टा-दर्शन-दृश्य और प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय आदि भाव भी जिससे
स्वाभाविक ही प्रकाशित होते हैं, ऐसा वह चेतन केवल एक दीप्तिमात्र ही है । साधारण लोग प्राण और
चेष्टायुक्त जीवोंको चेतन कहते हैं तथा जिसमें प्राण और क्रिया नहीं होती,
उसे जड़ कहते हैं; पर परमात्मामें क्रिया और प्राणके
सम्बन्धसे होनेवाली चेतनता नहीं है, उसमें
तो केवल चिति‒जाननामात्र ही है । तात्पर्य यह कि वहाँ जड़ता, अज्ञान, मोह, अन्धकार
आदि कुछ भी नहीं है, केवल चेतनमात्र ही है तथा वह भी स्वाभाविक स्वतः ही है ।
उस चित्-तत्त्वको समझनेके लिये एक बात कही जाती है । संसारमें
दो पदार्थ हैं‒(१) दीखनेवाला और (२) देखनेवाला । देखनेवाला चेतन है, दीखनेवाला जड़
है । देखनेवाला द्रष्टा है, दीखनेवाला दृश्य है । दृश्य दृश्य ही रहता है और द्रष्टा
द्रष्टा ही । घट-पट आदि संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रकाश करनेवाले नेत्र हैं । घट-पटादिमें
परिवर्तन होता है, उनका परस्पर भेद भी है,
कभी उनका प्रकाश होता है तो कभी अप्रकाश । किंतु नेत्रोंमें
कोई भेद न रहते हुए भी प्रकाशनशक्ति है । नेत्र भी मनके द्वारा प्रकाश्य हैं । अतः
नेत्रोंमें भी अन्धता, मन्दता, पटुता आदि धर्म रहते हैं,
उन धर्मोंको मन एकरूपसे देखता है । नेत्रोंका विकार मनमें नहीं
आता; क्योंकि नेत्र प्रकाश्य हैं और मन उनका प्रकाशक है । मनसे भी आगे बुद्धितत्त्व
है, वह एक रहता हुआ ही मनकी संकल्प-विकल्प आदि अनेक वृत्तियोंको निर्विकाररूपसे प्रकाशित
करता है । इसलिये बुद्धि प्रकाशक और मन प्रकाश्य है । इसी तरह बुद्धिमें भी अज्ञता,
विज्ञता आदि अनेक धर्म रहते हैं । अतः बुद्धि दृश्य और आत्मा
द्रष्टा है, क्योंकि बुद्धि और बुद्धिगत विज्ञता-अज्ञता
आदि धर्म निर्विकार आत्मासे ही प्रकाशित होते हैं और आत्मा किसीसे भी प्रकाशित नहीं
होता । अर्थात् वह मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर
आदि किसीका भी विषय नहीं होता । इसलिये वास्तविक द्रष्टा यही है । इसमें भी यह समझनेकी बात है कि आत्माकी द्रष्टा-संज्ञा दृश्यको
लेकर ही है । अगर दृश्य नहीं हो तो आत्माकी द्रष्टा-संज्ञा भी नहीं रहती,
बल्कि एक चेतनमात्र ही रह जाता है । वह फिर एकदेशीय नहीं रहता;
क्योंकि वहाँ दृश्यका‒देश,
काल, वस्तुका सर्वथा अभाव है । वही परिपूर्ण ‘चित्’
तत्त्व कहा जाता है । इस चित्-तत्त्वका वर्णन गीतामें ५वें अध्यायके
२४; ८वें अध्यायके ८, ९; १३वें अध्यायके १७, ३३ और १५
वें अध्यायके १५वें श्लोकोंमें मुख्यतासे किया गया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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