(गत ब्लॉगसे आगेका)
इस संसारको उत्पन्न करनेवाला भी वही है । इसका आधार और
मालिक भी वही है । यह संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है, जिसमें प्रवाहरूपसे
निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । ऐसे संसारको महत्त्व देता है वह जीव, जो भगवान्का अंश है‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५ । ७)
। भगवान् नित्य-निरन्तर रहनेवाले है । ऐसे
ही उनका अंश (जीव) भी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है । वह जीव नित्य-निरन्तर बदलनेवाले संसारको आदर देता है‒यह बड़े आश्चर्यकी
बात है !
भगवान्ने जड़ संसारको अपनी ‘अपरा प्रकृति’ और
जीवको अपनी ‘परा प्रकृति’ बतलाया है (गीता ७ । ४-५) । परन्तु जीवने जगत्को धारण
कर लिया‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ अर्थात् उसीमें उलझ गया
। यदि यह जगत्को धारण न करे तो फिर जगत् नहीं रहेगा, अपितु एक भगवान् ही रह जायँगे‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) । परन्तु जीव
संसारको अपना मानकर उसीमें उलझ जाता है । इतना ही नहीं, संसारके अत्यन्त तुच्छ अंश रुपयोंको लेकर वह अपनेको
बड़ा मानने लग जाता है । कितने आश्चर्यकी बात है ! थोड़ी
विद्या, थोड़ी शक्ति लेकर वह घमण्ड करने लग जाता है । हिरण्यकशिपुने
प्रह्लादजीसे पूछा कि तुम्हारा कौन है ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि जिसके थोड़े-से अंशको लेकर आपने त्रिलोकीपर विजय प्राप्त कर ली, वही
मेरा है । मनुष्य तुच्छ-तुच्छ वस्तुओंको लेकर अपनेमें बड़प्पनका
अनुभव करता है । परन्तु वास्तवमें उसका बड़प्पन परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है ।
परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि भी हो जाय तो मनुष्य बड़ा हो जाता
है । जिसकी भगवान्में रुचि
हो गयी है, उसके सामने संसारमात्रका वैभव भी कुछ नहीं है । भगवान् कहते हैं‒
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते
।
(गीता ६ ।
४४)
अर्थात् परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म (वेदों) को अतिक्रमण कर जाता है । वेदोंके अध्ययन, यज्ञ,
तप, दान आदिके जो फल बतलाये गये है, उन सम्पूर्ण फलोंको वह अतिक्रमण कर जाता है और सनातन परमपदको प्राप्त कर लेता
है (गीता ८ । २८) । ऐसा करनेका अवसर मनुष्यशरीरमें
ही है, जो हमें मिला हुआ है । परन्तु फिर भी तुच्छ वस्तुओंमें
फँसे हुए है‒यह कितने आश्चर्यकी बात है ! तुच्छ
वस्तुओंसे कबतक काम चलेगा ? सदा हमारे साथ न धन रहेगा,
न कुटुम्ब रहेगा, न मान-बड़ाई
रहेगी, न यह अवस्था रहेगी, न शरीर रहेगा;
क्योंकि ये रहनेवाली वस्तुएँ हैं ही नहीं ।
अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो
दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति
पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा
॥
(भर्तहरिवैराग्यशतक)
‘जलनेसे होनेवाले दुःखको न जाननेके
कारण ही पतंगा दीपमें गिरता है । न जाननेके कारण ही मछली वंसीमें लगे मांसके टुकड़ेको
खा लेती है और फँस जाती है । परन्तु हमलोग जानते हुए भी विपत्तिके जटिल जालमें फँसानेवाली
कामनाओंको, भोगोंको नहीं छोड़ते । अहो ! यह मोहकी बड़ी गहन, विचित्र महिमा है !’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
|