मनुष्यका कल्याण किसी परिस्थितिके अधीन
नहीं है, अपितु उसके
सदुपयोगमें है । कैसी ही प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, उसमें वह अपना कल्याण
कर सकता है । मनुष्य परिस्थितिको बदलनेका प्रयास अधिक करता है कि निर्धनता चली जाय
और धनवत्ता आ जाय, मूर्खता चली जाय और विद्वत्ता आ जाय,
रोग चला जाय और नीरोगता आ जाय, इत्यादि । इसीमें
उसका बहुत समय चला जाता है । परंतु कल्याण करनेके लिये ‘प्राप्त
परिस्थितिका सदुपयोग कैसे किया जाय’‒इसपर विचार करें तो बहुत लाभ होगा ।
संसारमें ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं
है कि जिसमें जीवका कल्याण न हो सकता हो । कारण कि परमात्मा किसी भी परिस्थितिमें कम या अधिक, समीप या दूर नहीं है,
अपितु प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूपसे विद्यमान हैं । अतः प्रत्येक
परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिमें साधक हो सकती है, बाधक नहीं
। मनुष्य-जन्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है और किन्हीं
दो मनुष्योंकी भी परिस्थिति समान नहीं रहती । इसलिये किसी एक परिस्थितिमें ही परमात्माकी
प्राप्ति होती हो तो सब मनुष्योंका कल्याण हो सकता है‒यह बात नहीं कही जाती,
अपितु यह कहते कि किसी एकका ही कल्याण होगा । अतः साधकको प्रत्येक परिस्थितिका
सदुपयोग करना चाहिये । सदुपयोगके लिये पहले परिस्थितिको देखे कि वह हमारे अनुकूल है
या प्रतिकूल ? यदि प्रतिकूल है, तो उसमें
अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करना है । प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है,
जब सुखदायी परिस्थितिकी इच्छा करते है । इसलिये यदि सुखदायी परिस्थिति-(अनुकूलता-) की इच्छाका त्याग करें तो दुःखदायी परिस्थिति
(प्रतिकूलता) विकासका कारण हो जायगी । ऐसे ही सुखदायी
परिस्थिति आये तो उसके सुख-भोगका और ‘वह बनी रहे’ ऐसी इच्छाका
त्याग करना है; क्योंकि वह रहनेवाली है ही नहीं । उसका
सुख स्वयं न भोगकर उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनी है; क्योंकि
अनुकूल परिस्थिति दूसरोंकी सेवाके लिये ही है, अपने सुखभोगके लिये नहीं ।
एहि तन कर फल बिषय न भाई
।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई
॥
(मानस ७ ।
४३ । १)
‘त्याग’ अर्थात् सुखका भोग नहीं करना
और ‘सेवा’ अर्थात् दूसरोंको सुख पहुँचाना‒ये दोनों ही चीजें कल्याण करनेवाली हैं, जिसे प्रत्येक
मनुष्य कर सकता है । त्यागमें सेवा होती है और सेवामें त्याग होता है ।
मनुष्य दुःखदायी परिस्थितिमें भी दूसरोंकी सेवा कर सकता
है, दूसरोंको सुख पहुँचा
सकता है । कोई कहे कि मेरे पास पैसे नहीं हैं, तो दूसरेको सुख
कैसे पहुँचाऊँ ! तो पैसोंसे ही दूसरोंको सुख पहुँच सकता हो‒ऐसी
बात नहीं है । हमारे हृदयमें दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव
होना चाहिये । दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदयसे दुःखी हो जायँ कि उसका
दुःख कैसे मिटे ? उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें । उससे
कहें कि दुःखदायी परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये; ऐसी परिस्थिति
तो भगवान् राम एवं नल, हरिश्चन्द्र आदि अनेकों बड़े-बड़े पुरुषोंपर भी आयी है; आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे
भी अधिक दुःखी है; हमारे लायक कोई काम हो तो कहना, इत्यादि । ऐसी बातोंसे वह राजी हो जायगा । ऐसे ही सुखी व्यक्तिसे मिलकर हम
भी हृदयसे सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ तो वह राजी हो जायेगा । इस प्रकार हम सुखी
और दुःखी‒दोनों व्यक्तियोंकी सेवा कर सकते हैं । दूसरेके
सुख और दुःख‒दोनोंमें सहमत होकर हम दूसरेको सुख पहुँचा सकते है । केवल दूसरोंके हितका
भाव ‘सर्वभूतहिते रताः’ निरन्तर रहनेकी आवश्यकता है । जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी
और दूसरोंके सुखसे सुखी होते है, वे संत होते हैं‒‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’ (मानस ७ । ३७ । १) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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