(गत ब्लॉगसे आगेका)
दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है‒सुखकी इच्छाका त्याग
करना । सुखकी इच्छासे ही दुःख होता है । सुखकी इच्छाका त्याग कर दे तो दुःख होगा ही
नहीं । जैसे,
बीमार होनेपर, ‘मैं स्वस्थ हो जाऊँ’ ऐसी इच्छा
रहनेसे ही दुःख होता है । यदि बीमारीको भगवान्की भेजी हुई तपस्या
मानें तो दुःख नहीं होगा । एक व्यक्ति व्रत रखनेके कारण अन्न नहीं खाता और एक व्यक्तिको
अन्न नहीं मिलता तो व्रत रखनेवालेको अन्न न मिलनेका दुःख नहीं होता; क्योंकि उसमें अन्न खानेकी इच्छा ही नहीं है । परन्तु अन्न खानेकी इच्छा रहनेपर
अन्न न मिले तो दुःख होता है ।
प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो उससे एक तो पापोंका नाश होता है और एक नया विकास
होता है । परन्तु दुःखसे दुःखी होनेपर विकास रुक जाता है । सुख आनेपर तो साधनमें बाधा आ सकती
है, पर दुःख आनेपर बाधा आ ही नहीं सकती; क्योंकि दुःख अटकानेवाला नहीं है । इसलिये
सुख आये या दुःख, नफा हो या घाटा, बीमारी आये या स्वस्थता,
आदर हो या निरादर, प्रशंसा हो या निन्दा, प्रत्येक
परिस्थितिमें साधकको समान रहना चाहिये । ऐसा सुख आ जाय, इतना
नफा हो जाय, ऐसी प्रशंसा हो जाय आदिकी इच्छा रखनेसे वैसा तो होता
नहीं, वह मुफ्तमें दुःख पाता रहता है । सुखदायी परिस्थितिमें सुखी होना भी भोग है और दुःखदायी परिस्थितिमें
दुःखी होना भी भोग है । परन्तु दोनों परिस्थितियोंका सदुपयोग किया जाय तो भोग नहीं
होगा, अपितु योग होगा अर्थात्
उसके द्वारा परमात्मासे सम्बन्ध हो जायगा । भोगी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता ।
दुःखदायी परिस्थितिमें भगवान्की स्मृति आयेगी,
दूसरेका दुःख कैसा होता है‒इसका अनुभव होगा और दयाका भाव आयेगा । वास्तवमें
दुःखदायी परिस्थिति पापोंका फल नहीं, सुखकी इच्छाका फल है । मूल
बात तो यही है । दुःखदायी परिस्थितिको भले ही पापोंका फल मान लें, पर दुःखदायी परिस्थितिमें
जो सुखकी इच्छा होती है; वह पापोंका फल नहीं, पापोंका कारण है
। सुखकी इच्छा ही ‘काम’ है, जिससे सम्पूर्ण पाप होते है (गीता ३ । ३६-३७) । सुख भोगनेसे
सुखेच्छा बढ़ती है और सुखेच्छा बढ़नेसे दुःख बढ़ता है । सुखेच्छाका
त्याग करनेका उपाय है‒दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव । जैसे, हमारे पास अधिक धन है तो निर्धनोंको सुख कैसे हो ? हमारे पास विद्या अधिक है
तो विद्याहीनोंको सुख कैसे हो ? हमारे पास जो भी सुखदायी सामग्री
है, वह अपने भोगनेके लिये नहीं है । वह दूसरोंकी सेवा करनेके
लिये ही है; दूसरोंके सेवामें लगाना ही उस सामग्रीका सदुपयोग
है । सुख और दुःख सदुपयोग करनेसे ही मिटेंगे, भोगनेसे नहीं ।
सदुपयोग करनेसे हम सुख और दुःख दोनोंसे ऊँचे उठ जायँगे अर्थात् हमारा कल्याण हो जायगा
। इसलिये प्रत्येक परिस्थिति हमारे कल्याणका साधन है । कारण कि भगवान्ने मनुष्यजन्म जीवके उद्धारके लिये दिया है । अतः उसे जो सामग्री दी है,
वह कल्याणके लिये ही दी है ।
करी गोपाल की सब होई ।
जो अपनौं पुरुषारथ मानत, अति झूठौ
है सोई ॥
साधन, मन्त्र,
जन्त्र, उद्यम, बल,
ये सब डारौ धोई ।
जो कछु लिखिव राखी नँदनंदन
मेटि सकै नहि कोई ॥
दुख-सुख,
लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं
मरत हौ रोई ।
सूरदास स्वामी
करुनामय, स्याम-चरन मन पोई ॥
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
|