(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक उपाय यह है कि अपनेमें जो अवगुण
दीखे, उसको दूर करते जाओ । ऐसा करनेसे आपको न दीखनेवाले अवगुण
भी दीखने लग जायँगे । अतः जिन अवगुणोंका आप सुगमतासे त्याग
कर सकते हैं,
उनका आप त्याग कर दें तो
जिन अवगुणोंके त्यागमें आपको कठिनता दीखती है, उनका त्याग सुगमतासे होने लगेगा और
न दीखनेवाले अवगुण दीखने लग जायँगे । यह बड़ा भारी रामबाण उपाय है, आप करके देखो ।
सत्संगके द्वारा जिन-जिन कमजोरियोंका
ज्ञान हो, उनमें जिन कमियोंको सुगमतासे दूर कर सकते हैं, उनको दूर कर दो । जैसे कल्पना करो कि हमारी झूठ बोलनेकी
आदत है, तो जिस झूठसे हमारा कोई संसारका, रुपये-पैसोंका मतलब नहीं है, ऐसा झूठ नहीं बोलें । हम बिना मतलब झूठ बोलते हैं कि ‘अरे
भाई ! उठ जा, दोपहर हो गया, उठता ही नहीं ।’ अगर हम सच्ची बात बोलें कि ‘सूर्योदय हो रहा है, उठ जा’ तो इसमें क्या हर्ज है ? बिना मतलब झूठ बोलोगे तो आदत बिगड़ जायगी
।
जो अवगुण साफ दीखता है, जिसको दूर करनेमें
कोई परिश्रम नहीं, कोई हानि नहीं, उसको आप दूर कर दो तो अवगुण साफ-साफ दीखने लग जायेंगे
। अगर अपना अवगुण न दीखे तो उसकी चिन्ता मत करो और अवगुणको
अपनेमें कायम भी मत करो, क्योंकि स्वरूपमें कोई अवगुण नहीं है । नीयत यह होनी चाहिये
कि अपना अवगुण, अपनी कमी हमें रखनी नहीं
है ।
अगर आप अपनेको ही नहीं सुधार सकते, तो दूसरेको सुधार सकते हैं क्या ? सच्ची बात तो यह है कि अपना सुधार कर लेनेपर भी दूसरेका
सुधार कोई नहीं कर सकता । बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, आचार्य हुए हैं, वे भी दूसरेका सुधार नहीं कर सके, दूसरेको अपने समान नहीं बना सके । मैं आक्षेपसे नाम नहीं
लेता हूँ, बहुत विशेष आदरसे नाम लेता हूँ कि शंकराचार्य महाराजने दूसरा शंकराचार्य
बना दिया क्या ? रामानुजाचार्य महाराजने दूसरा रामानुजाचार्य
बना दिया क्या ? वल्लभाचार्य महाराजने दूसरा वल्लभाचार्य
बना दिया क्या ? अगर शिष्य चाहे तो गुरुसे तेज हो सकता
है, पर गुरु उसको वैसा नहीं बना सकता । इस बातपर आप विचार करें । अपनेको श्रेष्ठ बनाना तो हाथकी बात है, पर दूसरेको श्रेष्ठ बनाना हाथकी बात
नहीं है ।
जितने भी श्रेष्ठ गुरु हुए हैं, उनका उद्योग यही रहा है कि शिष्य हमारेसे भी अच्छा बने
। वे शिष्यको अपनेसे नीचा नहीं रखना चाहते । जो शिष्यको अपना
मातहत, अपने अधीन रखना चाहते हैं, वे वास्तवमें गुरु कहलाने लायक नहीं
हैं । गुरु तो गुरु ही बनाता है, चेला नहीं बनाता । शास्त्रमें लिखा है‒
सर्वतो जयमिच्छेत् पुत्रादिच्छेत्
पराभवम् ।
अर्थात् मनुष्य सब जगह अपनी विजय चाहे, पर पुत्रसे अपनी पराजय चाहे । ईमानदार पिताको यह इच्छा
रखनी चाहिये कि मेरा पुत्र मेरेसे तेज हो जाय । ऐसे ही ईमानदार गुरुको यह इच्छा रखनी
चाहिये कि मेरा शिष्य मेरेसे तेज हो जाय । परन्तु ऐसी इच्छा रखनेसे वह तेज नहीं हो
जाता । हाँ, अगर वह (पुत्र या शिष्य) खुद चाहे तो वैसा हो सकता है, एकदम पक्की बात है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे
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