(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब हनुमानजी सीता माताके पास गये तो
सामने फल लगे देखकर उनको भूख लगी । माँको देखते ही बालकोंको भूख लग जाया करती है !
और माँको मनमें भी आ जाता है कि कुछ खिला दूँ । सीता माताने सोचा कि यह बालक है, इसको कोई राक्षस खा जायगा ! इसलिये कहा कि ‘न बेटा, हाऊ खा जायगा !’ हनुमान्जीने कहा कि माँ ! मेरेको राक्षसोंका भय नहीं
है ! अगर तुम सुख मानो, मनमें प्रसन्न हो जाओ तो फल खा लूँ‒‘तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जो तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥’ (मानस ५ । १७ । ५) । फल भी खाना है, तो माँकी राजीके लिये ! माँने कहा कि बेटा ! रघुनाथजी
महाराजको याद करके मीठे-मीठे फल खाओ‒‘रघुपति चरन हृदय धरि
तात मधुर फल खाहु’
(मानस ५ । १७) । हनुमान्जीने फल खाये और राक्षसोंको अच्छी तरहसे मसल दिया ।
जब हनुमान्जी छिपकर लंकामें प्रवेश कर रहे थे तो लंकिनीने
उनको देख लिया और रोक दिया । हनुमान्जीने उसको मुक्का मारा । लंकिनी बेचारी तो अपनी
ड्यूटीपर पक्की थी, उसको मुक्का मार दिया, यह कोई न्याय है ? अनजान आदमीको रोकना तो पहरेदारका कर्तव्य है । बीकानेरके राजा श्रीगंगासिंहजी महाराजकी
एक बात मैंने सुनी है । एक बार वे मामूली आदमी बनकर पहरेदारके पास गये और कहा कि मुझे
भीतर जाने दो । पहरेदारने मना कर दिया कि नहीं जाने देंगे । गंगासिंहजीने दो रुपये
निकाले और कहा कि ये दो रुपये ले लो, मुझे भीतर जाने दो । पहरेदारने उनको जोरसे एक थप्पड़ लगाया ! वे चुपचाप पीछे लौट
गये । सुबह उस पहरेदारको बुलाया और कहा कि ‘अरे ! इतनी जोरसे थप्पड़ मारा करते हैं क्या
! तात्पर्य है कि यह पहरेदारका अधिकार है । गंगासिंहजी भी कुछ कह नहीं सके कि तुमने
थप्पड़ कैसे मारा ? उनके मनमें तो यह आया कि ऐसे ईमानदार
आदमीको अच्छी जगहपर रखना चाहिये; मेरेसे गलती हुई कि ऐसे आदमीको मामूली
पहरे पर रखा ! परन्तु हनुमान्जीने लंकाकी
पहरेदार लंकिनीको मुक्का मारा ! कारण क्या था ? लंकिनीने कहा कि चोर मेरा आहार होता है‒‘मोर अहार जहाँ
लगि चोरा’ (मानस ५ । ४ । २) । इसपर हनुमान्जीने उसको मुक्का मारा कि अगर चोर तेरा आहार
होता है तो तूने सीताजीको चुरानेवाले रावणको क्यों नहीं अपना आहार बनाया ? इतनी जोरसे मुक्का मारा कि उसके मुखसे खून बहने लगा और
वह कहती है कि आज सुख मिला ! ‒
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग
॥
(मानस ५ । ४)
कारण कि उसकी दृष्टि अपने
शरीरकी तरफ नहीं है,
प्रत्युत सत्संगसे होनेवाले
लाभकी तरफ है ।
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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