(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२९) ‘नित्ययुक्ता
उपासते’
(९ । १४;
१२ । २)‒नवें अध्यायके चौदहवें
श्लोकमें तो दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेनेवालोंके नित्य-निरन्तर भगवान्में लगे रहनेकी
बात कही है और बारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्के लिये कर्म करनेवाले तथा उन्हींके
परायण रहनेवालोंके नित्य-निरन्तर भगवान्में लगे रहनेकी बात कही है । तात्पर्य है कि
भगवान्की उपासना दो तरहसे होती है‒ एकमें सभी कर्म भगवत्सम्बन्धी ही होते हैं और दूसरीमें
कर्म संसार-सम्बन्धी भी होते हैं और भगवत्सम्बन्धी भी होते हैं । दोनों तरहकी उपासनामें
क्रियाओंका भेद तो है, पर भावोंका भेद नहीं है अर्थात् भक्तिके साधनमें क्रियाभेद तो
हो सकता है, पर भावभेद नहीं होता । भगवान्का ही भाव होनेके कारण दोनों ही साधक नित्य-निरन्तर
भगवान्में ही लगे रहते हैं । दूसरा भाव यह है कि भगवान्के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धको
चाहे दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर पहचान ले, चाहे साधनपञ्चक (११ ।
५५) से पहचान ले, फिर साधक नित्य-निरन्तर भगवान्में ही लगा रहता है ।
(३०) ‘यजन्ते
श्रद्धयान्विताः’ (९ । २३; १७ । १)‒ नवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें
सकाम मनुष्योंके द्वारा सत्- असत्रूप भगवान्का अविधिपूर्वक पूजन करनेकी बात आयी है
। सकाम मनुष्य अपने इष्टको भगवान्से अलग मानते हैं, उसको भगवद्रूप नहीं मानते, इसलिये
उनके द्वारा किया गया पूजन अविधिपूर्वक होता है । सत्रहवें अध्यायके पहले श्लोकमें
शास्त्रविधिका त्याग करके श्रद्धासे पूजन करनेवालोंकी निष्ठाके विषयमें अर्जुनका प्रश्न
है कि वे कौन-सी निष्ठा-(श्रद्धा-) वाले हैं । उसके उत्तरमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंकी
स्वभावसे उत्पन्न तीन प्रकारकी श्रद्धा बतायी । तात्पर्य है कि नवें अध्यायके तेईसवें
श्लोकमें देवताओंमें भगवद्बुद्धि न होनेसे उनका पूजन श्रद्धापूर्वक किये जानेपर भी
उसको अविधिपूर्वक कहा गया है, जिससे वे जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं; और सत्रहवें अध्यायके पहले श्लोकमें शास्त्रविधिका
अज्ञतापूर्वक त्याग होनेपर भी तीन प्रकारकी श्रद्धाकी बात कही गयी है, जिसमें सात्त्विकी
श्रद्धा होनेसे वे दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हो जाते हैं, जो मोक्षके लिये होती है ।
(३१) ‘मन्मना भव मद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु’ (९ । ३४; १८ । ६५)‒नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें
तो पहले राजविद्या, राज्यगुह्य और भक्तिके अधिकारियोंका वर्णन करके फिर ‘मन्मना भव....’ आदिकी आज्ञा दी; और अठारहवें
अध्यायके पैसठवें श्लोकमें पहले गुह्य, गुह्यतर और सर्वगुह्यतम बात बताकर फिर ‘मन्मना
भव....’ आदिकी आज्ञा दी । तात्पर्य
है कि नवें अध्यायमें भगवान् अपनी तरफसे ही नवें अध्यायका विषय शरू करते हैं, भगवान्की तरफसे कृपाका स्रोत बहता है; परंतु अर्जुनके मनमें अपने साधनका, पुरुषार्थका कुछ अभिमान है, अतः भगवान्ने
कहा‒‘मन्मना भव मद्भक्तः.....मत्परायणः’ (९ । ३४) ‘तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार
कर । इस प्रकार मेरे साथ अपने-आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा
।’ अतः यहाँ भगवत्प्राप्तिमें भगवत्परायणता हेतु है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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