(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक सन्तने कहा था‒यह हमारे काममें ली हुई, अनुभव
की हुई बात है कि मनसे पूछे‒तेरेको क्या चाहिये ? मनसे
उत्तर दे‒कुछ नहीं । बोल, क्या चाहिये ? कुछ
नहीं‒ऐसे बार-बार मनसे कहो तो चाहना मिट जायगी । हमें कुछ चाहिये ही नहीं;
क्योंकि सबके अन्न-जलकी व्यवस्था अपने-आप होती है । हम जी रहे
है तो जीनेकी सामग्री अपने-आप आयेगी । फिर चाहना क्यों करें ?
सुख मिले और दुःख न मिले‒ऐसा सब चाहते है पर आजतक एक भी प्राणी
ऐसा नहीं हुआ, जिसको दुःख न मिला हो और सुख-ही-सुख मिला हो । इसलिये प्रभुकी मरजीमें अपनी मरजी मिला दें । प्रभु जो कर रहे है, उसमें
हमारा हित भरा है । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये‒यही बन्धन है । यह न रहे
तो फिर प्रभुका भजन ही होगा ।
प्रभुकी मरजीमें अपनी मरजी मिला देना,
अपनी कोई अलग चाह न रखना ही पूजा है । अगर अपने मनमें ‘यह हो और यह न हो’‒ऐसा रहेगा तो पूजामें बाधा होगी । एक सन्त मिले थे । उन्होंने
कहा कि ‘हमारी तो सदा मनचाही होती है’
। दुनियामें ऐसा कोई नहीं है,
जिसकी सदा मनचाही होती हो । उनसे पूछा कि ‘महाराज ! आपकी सदा मनचाही कैसे होती है ?’
वे बोले कि ‘हम
अपनी कोई चाहना रखते ही नहीं, हमने अपनी चाहना भगवान्की चाहनामें मिला दी है ।
अब वे जो कुछ करें, उसमें हमारी भी यही चाहना है अर्थात् ऐसा हो गया
तो हम भी ऐसा ही चाहते हैं; अतः जो होता है, वह
हमारी चाहनाके अनुसार ही होता है ।’
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई ।
करै अन्यथा अस नहि कोई
॥
(मानस १
। १२८)
इसलिये साधक अपनी कोई चाहना न रखे ।
ऊधौ
मन माने की बात ।
दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल, विषकीरा
विष खात ॥जो चकोर को दै कपूर कोउ, तजि अंगार अघात । मधुप करत घर कोरे काठ में बँधत कमल के पात ॥ ज्यों पतंग हित जान आपनो दीपक सों लपटात । सूरदास जाको मन जासों, ताको सोइ सुहात ॥ कहा कहौं छबि आजुकी भले बने हो नाथ । तुलसी मस्तक तब नवै धनुष-बान लेउ हाथ ॥ मुरली मुकुट दुरायकै नाथ भये रघुनाथ । लखि अनन्यता भक्तिकी जन को कियो सनाथ ॥
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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