(गत ब्लॉगसे आगेका)
सेवक, सेवा और सेव्य‒ये तीन होते हैं । सेवा
करते-करते जब सेवकपनेका अभिमान मिट जाता है, तब
सेवक सेवा होकर सेव्यमें लीन हो जाता है । अभिमान मिटनेपर केवल सेवा-ही-सेवा रह जाती
है । जैसे,
गोस्वामीजी महाराजने रामायणकी रचना की तो अब रामायणके द्वारा
समाजकी कितनी सेवा हो रही है ! तात्पर्य है कि गोस्वामीजी महाराज ही सेवारूपसे हमारे
सामने आये हैं । रामायण गोस्वामीजी महाराजका ही रूप है और रामायणरूपसे सबकी सेवा कर
रहे हैं । उनकी सेव्य (परमात्मा) से अलग स्वतन्त्र स्थिति नहीं रही ।
ज्ञानमार्गमें जब जिज्ञासुपनेका अभिमान मिट जाता है,
तब केवल जिज्ञासा रहकर तत्वज्ञान हो जाता है । जबतक ‘मै जिज्ञासु
हूँ’ ऐसे जिज्ञासु रहता है, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं होता । जिज्ञासुपना मिटते ही तत्काल तत्वज्ञान
हो जाता है । इसमें किसी गुरुकी जरूरत नहीं है । कारण कि वास्तवमें तत्त्वज्ञान होता
नहीं है, प्रत्युत वह पहलेसे ही है । उत्पन्न होनेवाली चीज मिटनेवाली
होती है । जो पैदा होता है, उसका नाश अवश्यम्भावी है । ज्ञान नित्य
है । यह उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तु नहीं है । अज्ञानके मिटनेको ही ज्ञानका होना कह देते हैं । जैसे सूर्य उदय होता
है, पैदा नहीं होता, ऐसे ही ज्ञान उदय (प्रकट) होता है । ज्ञानस्वरूप परमात्मा सबके
हृदयमें विराजमान हैं‒
ज्योतिषामपि तज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
(गीता
१३ । १७)
‘वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका भी ज्योति
और अज्ञानसे अत्यन्त परे कहा गया है । वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान (साधनसमुदाय)
से प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदयमें विराजमान है ।’
केवल हमारे अज्ञानके कारण वे प्रकट नहीं हो रहे हैं‒
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी ।
सकल जीव जग दीन दुखारी ॥
(मानस, बाल॰ २३ । ४) ।
अज्ञान मिटते ही तत्वज्ञान ज्यों-का-त्यों है ।
गृहस्थमें रहते हुए अपने कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बहुत
सुगमतासे किया जा सकता है । एकान्तमें रहकर साधन करनेकी अपेक्षा
समुदायमें रहकर साधन करना श्रेष्ठ है । समुदायमें रहकर साधन करनेवाला एकान्तमें
भी साधन कर सकता है, पर एकान्तमें साधन करनेवाला समुदायमें रहकर साधन नहीं कर सकता‒यह
उसमें एक कमजोरी रहती है । गृहस्थ छोड़कर साधु बननेवाला कायर होता है । कायर भागता
है, शूरवीर नहीं भागता । शूरवीरका साधन तेज होता है । इसलिये गृहस्थमें
बड़े अच्छे सन्त हुए हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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