(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीरको संसारकी सेवामें लगा दे तो सेवा करते-करते शरीरसे माना
हुआ सम्बन्ध स्वतः छूट जायगा और स्वरूपमें स्थिति हो जायगी‒यह कर्मयोग है । शरीर और
संसारसे अपनेको अलग कर दे‒यह ज्ञानयोग है । शरीरसहित अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर
दे‒यह भक्तियोग है । संसारकी किसी भी वस्तुको अपनी न माने और किसीका अहित न करे तो
कर्मयोग सिद्ध हो जायगा । अपने-आपको सर्वथा असंग अनुभव कर ले तो ज्ञानयोग सिद्ध हो
जायगा । केवल भगवान्को ही अपना मान ले तो भक्तियोग सिद्ध हो जायगा । कर्मयोगी अपरा
प्रकृतिके कार्य शरीरको अपरा (संसार) की ही सेवामें लगा देता है तो आप (स्वयं) स्वतः अलग
हो जाता है और ज्ञानयोगी अपने-आपको अपरासे अलग कर लेता है;
अतः दोनोंको एक ही तत्त्व (स्वरूप-बोध अथवा मुक्ति) की प्राप्ति
होती है‒‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’ (गीता
५ । ५) । परन्तु भक्तको मुक्तिके
साथ-साथ पराभक्ति- (प्रेम)-की भी प्राप्ति होती है‒‘मद्धक्तिं
लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४) । इसलिये भगवान्ने कर्मयोग और ज्ञानयोगको लौकिक निष्ठा कहा
है[*]
। परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । अलौकिकके अन्तर्गत लौकिक
भी आ जाता है; क्योंकि लौकिक (परा और अपरा) प्रकृति परमात्माकी है । इसलिये
लौकिक दृष्टिसे देखें तो लौकिक अलग है और अलौकिक अलग है । परन्तु अलौकिक दृष्टिसे देखें
तो सब कुछ अलौकिक है, लौकिक है ही नहीं‒‘वासुदेवः सर्वम्
।’ अलौकिकमें लौकिकका जन्म ही नहीं हुआ ! वहाँ शरीर-संसार भी अलौकिक
हैं‒‘सदसच्चाहम् ।’
कर्मयोगमें ‘अकर्म’ मुख्य है‒‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि
च कर्म यः’ (गीता ४ । १८), ज्ञानयोगमें ‘आत्मा’
मुख्य है‒‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि’ (गीता ६ । २९), और भक्तियोगमें ‘भगवान्’
मुख्य हैं‒‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं
च मयि पश्यति’ ( गीता ६ । ३०) । कर्मयोगमें अकर्म शेष रहता है । अकर्म शेष रहनेपर क्रिया-पदार्थरूप
संसारका अभाव हो जाता है और शान्तिकी प्राप्ति हो जाती है । ज्ञानयोगमें आत्मा शेष
रहती है । आत्मा शेष रहनेपर स्वरूपमें स्थिति हो जाती है और अखण्ड आनन्दकी प्राप्ति
हो जाती है । भक्तियोगमें भगवान् शेष रहते हैं । भगवान् शेष रहनेपर प्रतिक्षण वर्धमान
प्रेम (अनन्त आनन्द) की प्राप्ति हो जाती है ।
प्रत्येक मनुष्यके अनुभवमें दो वस्तुएँ आती हैं‒एक शरीर और एक
वह स्वयं (शरीरी) । शरीर संसारका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है । शरीरकी संसारसे और स्वयंकी परमात्मासे सजातीयता अर्थात् सधर्मता
है । इसलिये शरीर संसारका तथा संसारके लिये है और स्वयं परमात्माका तथा परमात्माके
लिये है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(गीता ३ । ३)
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