(गत ब्लॉगसे आगेका)
छिति जल यावक गगन समीरा ।
पंच रचित यह अधम सरीरा ॥
संसारसे शरीरको अलग निकाल सकते हो ?
दिखा सकते हो ? कह सकते हो कि संसारसे शरीर अलग है,
यह बता सकते हो क्या ?
बोलो ! शरीर संसारके साथ एक है कि
आपके साथ एक है ? संसारके साथ है तो इसका विकार आपमें क्यों होता है
? स्वीकार कहाँ किया ? बातें
सुनी है, सीख ली है, याद
कर ली है । ये ठीक अनुभव हो जानेके बाद दुःख नहीं होगा, जलन
नहीं होगी, संताप नहीं होगा । आप विचार करो, फिर होगा क्या ?
प्रश्न‒इस
स्वीकृतिका स्वरूप क्या है ?
उत्तर‒स्वरूप यही है कि फिर सुख-दुःख नहीं होगा । संयोग-वियोगका असर
नहीं पड़ेगा । ज्ञान होगा । ज्ञान होना और चीज है, असर
पड़ना और चीज है । एक प्रभाव पड़ता
है, वह असर है जो और है । ज्ञान कुछ और है । ज्ञान है, वह
विकारोंको मिटाता है । ज्ञान नयी स्थिति पैदा नहीं करता ।
प्रश्न‒यह
ज्ञान कैसे हो ?
उत्तर‒ज्ञान कैसे हो, यह
लगन लग जाय, बस हो जायगा । इसके बिना न भोजन भावे, न प्यास
लगे, न नींद आवे, न बात
सुहावे । यह कैसे हो ?
हो जायगा । है वो तो वास्तवमें,
हो क्या जायगा ? उसकी जगह अज्ञानको लेकर उसके साथ रस
ले रहे हो, इस वास्ते नहीं मिट रहा है । यहीं फेल हो जाते हैं
। यह मत होने दो साहब । यह जँचती
है कि नहीं मेरी बात ! युक्ति-संगत बात है,
अनुभवसिद्ध बात है,
शास्त्र-सम्मत बात है । शास्त्र-सम्मत, युक्ति-संगत, अनुभव-सिद्ध
तीनों बातें हैं । फिर भी ख्याल ही नहीं होता कि स्वाभाविकता क्या है और अस्वाभाविकता
क्या है ?
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
000 000 000
अपना दृढ़ विचार कर लें कि चाहे दुःख आये या सुख,
अनुकूलता आये या प्रतिकूलता,
हमें तो भगवान्को प्राप्त करना ही है । यदि हम पहले अपने अन्तःकरणको
शुद्ध करनेमें लग जायँगे तो भगवत्प्राप्तिमें बहुत देर लगेगी । हमारे उद्योग करनेकी
अपेक्षा भगवान्की अनन्त अपार कृपाशक्ति हमें बहुत शीघ्र शुद्ध कर देगी । बच्चा कीचड़से
लिपटा भी हो, यदि माँकी गोदमें चला जाय तो माँ स्वयं ही उसे साफ कर देती है
।
(‒‘लक्ष्य अब
दूर नहीं’ पुस्तकसे)
|