(गत ब्लॉगसे आगेका)
३. महापुरुष जिस साधनासे तत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं,
उसके अनुसार (सिद्धावस्थामें भी) उनका व्यवहार होता हैं । जो
महापुरुष ज्ञानयोगसे सिद्धिको प्राप्त हुआ है, उसमें उदासीनता, तटस्थता, निरपेक्षता
मुख्य रहती है । कर्मयोगसे सिद्धिको प्राप्त
हुए महापुरुषमें कर्मप्रवणता (कर्म करनेका प्रवाह) मुख्य रहती
है । भक्तियोगसे भगवान्को प्राप्त हुए महापुरुषमें करुणा,
दया, भगवच्चर्चा आदि मुख्य रहते हैं । तात्पर्य है कि साधनावस्थामें
उनका जैसा स्वभाव रहा है, वही स्वभाव सिद्धावस्थामें भी रहता है ।
४. सामनेवाले व्यक्तिका महात्मामें पूज्य,
आदरका भाव होता है तो महात्माके द्वारा स्वतः ही ज्ञानकी चर्चा
विशेषतासे होती है । परन्तु सामनेवाले व्यक्तिका विशेष आदरभाव न होनेसे महात्माके द्वारा
उसके साथ सामान्य बर्ताव होता है । कोई तर्कबुद्धिसे सामने आता है तो उसके साथ उसीके
भावके अनुसार उत्तर-प्रत्युत्तर होता है । परन्तु खुद महापुरुषमें कोई विकार नहीं होता
।
प्रश्न‒दुर्वासा
तत्त्वज्ञ महापुरुष थे, फिर वे इतना क्रोध क्यों करते थे ?
स्वामीजी‒दुर्वासा तपस्वी
माने जाते हैं । शाप देना, अनुग्रह करना आदि बातें ऊँचे तपस्वियोंमें ज्यादा होती हैं ।
उनमें तपोबलका अभिमान होता है, जबकि बोधका अभिमान नहीं होता ।
तपस्या एक बल है, पूँजी है । उस बलसे शाप और अनुग्रह‒दोनों हो सकते हैं । उसका
सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी, परन्तु अहंता-ममतारहित गुणातीत महापुरुषोंके द्वारा प्रायः ऐसा
व्यवहार नहीं होता । कभी साधनावस्थाकी वृत्तिका उदय होनसे अथवा सामनेवालेके प्रारब्धसे
उनके द्वारा शाप अथवा अनुग्रहका व्यवहार हो सकता है । परन्तु यह व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक
हुआ है अथवा निर्विकारतापूर्वक‒इस भेदको स्वयं ही जाना जा सकता है । दूसरे व्यक्ति
इसे नहीं समझ सकते; क्योंकि उनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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