(गत ब्लॉगसे आगेका)
आगे भगवान्ने एक विलक्षण बात बतायी है कि ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने वर्णोचित कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका
पूजन करके परम सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य
सिद्धिं विन्दति मानवः’ (१० । ४६) वास्तवमें कल्याण वर्णोचित कर्मोंसे नहीं होता, प्रत्युत
निष्कामभावपूर्वक पूजनसे ही होता है । शूद्रका तो स्वाभाविक कर्म ही परिचर्यात्मक अर्थात् पूजनरूप है;
अतः उसका पूजनके द्वारा पूजन होता है अर्थात् उसके द्वारा दुगुनी
पूजा होती है ! इसलिये उसका कल्याण जितनी जल्दी होगा,
उतनी जल्दी ब्राह्मण आदिका नहीं होगा ।
शास्त्रकारोंने उद्धार करनेमें छोटेको ज्यादा प्यार
दिया है; क्योंकि छोटा प्यारका पात्र होता है और बड़ा अधिकारका
पात्र होता है । बड़ेपर चिन्ता-फिक्र ज्यादा रहती है, छोटेपर
कुछ भी भार नहीं रहता । शूद्रको
भाररहित करके उसकी जीविका बतायी गयी है और प्यार भी दिया गया है ।
वास्तवमें देखा जाय तो जो वर्ण-आश्रममें जितना ऊँचा
होता है, उसके लिये शास्त्रोंके अनुसार उतने ही कठिन नियम
होते हैं । उन नियमोंका सांगोपांग पालन करनेमें कठिनता अधिक मालूम देती है । परन्तु
जो वर्ण-आश्रममें नीचा होता है, उसका कल्याण सुगमतासे हो जाता है । इस विषयमें विष्णुपुराणमें एक कथा आती है‒एक बार बहुत-से ऋषि-मुनि
मिलकर श्रेष्ठताका निर्णय करनेके लिये भगवान् वेदव्यासजीके पास गये । व्यासजीने सबको
आदरपूर्वक बिठाया और स्वयं गंगामें खान करने चले गये । गंगामें स्नान करते हुए उन्होंने
कहा‒‘कलियुग, तुम धन्य हो ! स्त्रियो,
तुम धन्य हो ! शूद्रो,
तुम धन्य हो ! जब व्यासजी स्नान करके ऋषियोंके पास आये तो ऋषियोंने
कहा-महाराज ! आपने कलियुग, स्त्रियों और शूद्रोंको धन्यवाद कैसे दिया ! तो उन्होंने कहा कि कलियुगमें अपने धर्मका पालन करनेसे स्त्रियों और
शूद्रोंका कल्याण जल्दी और सुगमतापूर्वक हो जाता है ।
यहाँ एक और बात सोचनेकी है कि जो अपने
स्वार्थका काम करता है, वह समाजमें और संसारमें आदरका पात्र नहीं होता ।
समाजमें ही नहीं, घरमें भी जो व्यक्ति पेटू और चट्टू होता है, उसकी
दूसरे निन्दा करते हैं । ब्राह्मणोंने स्वार्थ-दृष्टिसे अपने ही मुँहसे अपनी (ब्राह्मणोंकी) प्रशंसा,
श्रेष्ठताकी बात नहीं कही है । उन्होंने ब्राह्मणोंके लिये त्याग
ही बताया है । सात्त्विक मनुष्य अपनी प्रशंसा नहीं करते,
प्रत्युत दूसरोंकी प्रशंसा,
दूसरोंका आदर करते हैं । तात्पर्य है कि ब्राह्मणोंने कभी अपने स्वार्थ और अभिमानकी बात नहीं कही । यदि
वे स्वार्थ और अभिमानकी बात कहते तो वे इतने आदरणीय नहीं होते, संसारमें
और शास्त्रोंमें आदर न पाते । वे जो आदर पाते हैं, वह
त्यागसे ही पाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’
पुस्तकसे
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