(गत ब्लॉगसे आगेका)
इस विषयमें माता-पिताको
भगवान्के इन वचनोंका मनन करना चाहिये‒
न मे पार्थास्ति
कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं
वर्त एव च कर्मणि
॥
यदि ह्यहं न
वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः
॥
उत्सीदेयुरिमे
लोका न कुयां
कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता
स्यामुपहन्यामिमा प्रजाः ॥
(गीता
३ । २२ ‒ २४)
‘हे पार्थ ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य
वस्तु अप्राप्त है फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ । अगर मैं किसी समय सावधान
होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं । यदि मैं कर्म न
करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताको करनेवाला तथा इस समस्त प्रजाको
नष्ट करनेवाला बनूँ ।’
प्रश्न‒आजकल स्कूलोंका
वातावरण अच्छा नहीं है; अतः बच्चोंकी शिक्षाके लिये क्या करना
चाहिये ?
उत्तर‒बच्चेको प्रतिदिन
घरमें शिक्षा देनी चाहिये । उसको ऐसी कहानियाँ सुनानी चाहिये, जिनमें यह बात
आये कि जिसने माता-पिताका कहना किया, उसकी उन्नति हुई और जिसने माता-पिताका
कहना नहीं किया, उसका जीवन खराब
हुआ । जब बच्चा पढ़ने लग जाय, तब उसको भक्तोंके चरित्र पढ़नेके लिये देने चाहिये । बच्चेसे
कहना चाहिये कि ‘बेटा ! हरेक बच्चेके साथ स्वतन्त्र सम्बन्ध मत रखो, ज्यादा घुल-मिलकर
बात मत करो । पढ़कर सीधे घरपर आ जाओ । बड़ोंके पास रहो । कोई चीज खानी हो तो माँसे बनवाकर
खाओ, बाजारकी चीज मत
खाओ; क्योंकि दूकानदारका
उद्देश्य पैसा कमानेका होता है कि पैसा अधिक मिले, चीज चाहे कैसी हो । अतः वह चीजें अच्छी
नहीं बनाता । बचपनमें अग्नि तेज होनेसे अभी तो बाजारकी चीजें पच जायँगी, पर उनका विकार
(असर) आगे चलकर मालूम होगा ।’
गृहस्थको
चाहिये कि वह धन कमानेकी अपेक्षा बच्चोंके चरित्रका ज्यादा खयाल रखें; क्योंकि
कमाये हुए धनको बच्चे ही काममें लेंगे । अगर बच्चे बिगड़ जायँगे तो धन उनको और ज्यादा
बिगाड़ेगा ! इस विषयमें अच्छे पुरुषोंका कहना है‒‘पूत
सपूत तो क्यों धन संचै ? पूत कपूत तो क्यों
धन संचै ?’ अर्थात् पुत्र सपूत होगा तो उसको धनकी कमी रहेगी नहीं
और कपूत होगा तो संचय किया हुआ सब धन नष्ट कर देगा, फिर धनका संचय क्यों करें ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
|