(गत ब्लॉगसे आगेका)
कोलिन क्लार्कने लिखा है कि ‘आर्थिक सलाहकारोंका
काम यह बताना है कि अर्थ-व्यवस्थाको जनसंख्याके अनुसार कैसे ठीक किया जाय, न कि
यह बताना कि जनसंख्याको अर्थ-व्यवस्थाके अनुसार कैसे ठीक किया जाय । किसी भी अर्थशास्त्रीको, चाहे
वह कितना ही बड़ा विद्वान् हो और किसी भी सरकारको, चाहे
वह कितनी ही शक्तिशाली हो, यह अधिकार नहीं है कि वह माँ-बापसे संतान कम पैदा
करनेके लिये अथवा पैदा न करनेके लिये कहे । परंतु हर माँ-बापको यह अधिकार अवश्य है कि वे अर्थशास्त्रियोंसे और सरकारसे यह
माँग करें कि वे अर्थ-व्यवस्थाको इतना सुदृढ़ बनायें कि उनके परिवारकी जीवन-निर्वाह-सम्बन्धी
आवश्यकताएँ पूरी हो सकें ।’
एक आदमीके शरीरसे एक बार स्त्रीसंगके समय जितना वीर्य निकलता
है, उससे करोड़ों बच्चे पैदा हो सकते हैं ! कारण कि उसमें लगभग पचीससे पचास करोड़तक शुक्राणु
विद्यमान रहते हैं, जिनमेंसे प्रत्येक शुक्राणुमें एक मनुष्य बननेकी पूरी क्षमता
होती है । परंतु उनमेंसे कोई एक ही शुक्राणु स्त्रीके रजसे मिलकर मनुष्य बन पाता है
। मनुष्यकी इस संतानोत्पादक शक्तिको किसी देशकी सरकारने अथवा खुद मनुष्यने सीमित नहीं
किया है, प्रत्युत उसने सीमित किया है,
जो इस सम्पूर्ण संसारका रचयिता,
पालनकर्ता और संहारकर्ता है[1]
। जनसंख्याके नियोजनका,
उसको बढाने-घटानेका कार्य उसके विभागमें है,
सरकारके विभागमें नहीं । तात्पर्य है कि सरकारका अधिकार जनसंख्याको सीमित करना नहीं है, प्रत्युत
जितनी जनसंख्या है, उसके जीवन-निर्वाहका, उसकी
सुरक्षाका भलीभाँति प्रबन्ध करना है । यदि जनसंख्या और जीवन-निर्वाहके साधनोंके बीच संतुलनको ठीक रखनेका प्रयत्न किया
जायगा तो संतुलन ठीक होनेकी अपेक्षा और बिगड़ जायगा । कारण कि जीवन-निर्वाहके साधन मनुष्योंके लिये हैं, न कि
मनुष्य उनके लिये । मनुष्योंको
कम करके अन्नको अधिक पैदा करनेकी चेष्टा वैसी ही है,
जैसी चेष्टा संतानको गर्भमें न आने देकर माँका दूध अधिक प्राप्त
करनेकी है ! जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है,
फिर मनुष्य अधिक होंगे तो क्या अन्न अधिक नहीं होगा ?
यह प्रत्यक्ष बात है कि जब देशमें परिवार-नियोजन-कार्यक्रमका
आरम्भ नहीं हुआ था, तब अन्न जितना सस्ता था, उतना
आज नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे
[1] गीतामें भगवान् कहते है‒‘धर्माविरुद्धो
भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ’ (७ । ११) ‘मनुष्योंमें धर्मसे अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त
काम मैं हूँ’; ‘प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः’ (१० ।
२८) ‘संतानोत्पत्तिका
हेतु काम मैं हूँ ।’
|