कृष्णेति नामानि च निःसरन्ति रात्रन्दिवं वै प्रतिरोमकूपात्
।
यस्यार्जुनस्य प्रति तं सुगीतगीते न नाम्नो महिमा
भवेत्किम् ॥
नाम और नामीमें अर्थात् भगवन्नाम और भगवान्में अभेद है; अतः दोनोंके स्मरणका एक ही माहात्म्य है । भगवन्नाम तीन तरहसे
लिया जाता है‒
(१) मनसे‒मनसे नामका स्मरण होता है,
जिसका वर्णन भगवान्ने ‘यो मां स्मरति
नित्यशः’ (८ ।
१४) पदोंसे किया है ।
(२) वाणीसे‒वाणीसे नामका जप होता है,
जिसे भगवान्ने ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (१० । २५) पदोंसे अपना स्वरूप बताया है ।
(३) कण्ठसे‒कण्ठसे जोरसे उच्चारण करके कीर्तन किया जाता है,
जिसका वर्णन भगवान्ने ‘कीर्तयन्तः’ (९ । १४) पदसे किया है ।
गीतामें भगवान्ने ॐ,
तत् और सत्‒ये तीन परमात्माके नाम बताये हैं‒‘ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः’ (१७ । २३) । प्रणव-(ओंकार-) को भगवान्ने अपना स्वरूप बताया है‒‘प्रणवः सर्ववेदेषु’ (७ ।
८),
‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (१० । २५) । भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य ‘ॐ’‒इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और मेरा स्मरण करके शरीर छोड़कर
जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है (८ । १३) ।
अर्जुनने भी भगवान्के विराट्रूपकी स्तुति करते हुए नामकी महिमा
कही है; जैसे‒‘हे प्रभो ! कई देवता भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम
आदिका कीर्तन कर रहे है’ (११ । २१), ‘हे अन्तर्यामी भगवन् ! आपके
नाम आदिका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग-(प्रेम-) को
प्राप्त हो रहा है । आपके नाम आदिके कीर्तनसे भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें
भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं । यह सब होना उचित
ही है’ (११ । ३६) ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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