(गत ब्लॉगसे आगेका)
(४) पितरोंके भक्त पितरोंका पूजन करते हैं और इसके फलस्वरूप वे
पितरोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् पितृलोकमें चले जाते हैं‒‘पितॄन्यान्ति पितृव्रताः’ (९ ।
२५) । (परंतु यदि वे निष्कामभावसे
कर्तव्य समझकर पितरोंका पूजन करते हैं, तो वे मुक्त हो जाते हैं ।)
(५) राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं (१७ ।४) और फलस्वरूप
यक्ष-राक्षसोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं[*] ।
(६) तामस पुरुष भूत-प्रेतोंका पूजन करते हैं (१७ । ४) । भूत-प्रेतोंका
पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं‒‘भूतानि यान्ति भूतेज्याः’
(१ । २५) ।[†]
गीतामें निष्कामभावसे मनुष्य,
देवता, पितर यक्ष-राक्षस आदिकी सेवा पूजन करनेका निषेध नहीं
किया गया है, प्रस्तुत निष्कामभावसे सबकी सेवा एवं हित करनेकी बड़ी महिमा गायी गयी है
(५ । २५; ६ । ३२; १२ । ४) । तात्पर्य है कि निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी
आज्ञासे केवल देवताओंकी पुष्टिके लिये, उनकी उन्नतिके लिये ही कर्तव्य-कर्म, पूजा आदि
की जाय, तो उससे मनुष्य बँधता नहीं, प्रत्युत परमात्माको प्राप्त हो जाता है (३ । ११) । ऐसे ही निष्कामभावपूर्वक
और शास्त्रकी आज्ञासे कर्तव्य समझकर पितरोंकी तृप्तिके लिये श्राद्ध-तर्पण किया जाय,
तो उससे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत
आदिके उद्धारके लिये, उन्हें सुख-शान्ति देनेके लिये निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी
आज्ञासे उनके नामसे गया-श्राद्ध करना, भागवत-सप्ताह करना, दान करना, भगवन्नामका जप-कीर्तन
करना, गीता-रामायण आदिका पाठ करना आदि-आदि
किये जायँ, तो उनका उद्धार हो जाता है, उनको सुख-शान्ति मिलती है और साधकको परमात्माकी
प्राप्ति हो जाती है । उन देवता, पितर यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिको अपना इष्ट मानकर सकाम भावपूर्वक
उनकी उपासना करना ही खास बन्धनका कारण है; जन्म-मरणका,
अधोगतिका कारण है ।
मनुष्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत, पशु-पक्षी
आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें हमारे प्रभु ही हैं, इन
प्राणियोंके रूपमें हमारे प्रभु ही हैं‒ऐसा समझकर (भगवद्बुद्धिसे) निष्कामभावपूर्वक
सबकी सेवाकी जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।
उपर्युक्त दोनों बातोंका तात्पर्य यह हुआ कि अपनेमें सकामभाव होना और जिसकी सेवा की जाय, उसमें
भगवद्बुद्धिका न होना ही जन्म-मरणका कारण है
। अगर अपनेमें निष्कामभाव हो और जिसकी सेवा की जाय, उसमें
भगवद्बुद्धि (भगवद्भाव) हो तो वह सेवा परमात्मप्राप्ति करानेवाली ही होगी ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
[*] गीतामें भगवान्ने यक्ष-राक्षसोंके पूजनका तो वर्णन कर दिया‒‘यक्षरक्षांसि राजसाः’ (१७ ।
४), पर उनके पूजनके फलका वर्णन
नहीं किया । अतः यहाँ ऐसा समझाना चाहिये कि जैसे देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको
ही प्राप्त होते हैं (९ । २५), ऐसे ही यक्ष-राक्षसोंका पूजन करनेवाले यक्ष-राक्षसोंको
ही प्राप्त होते हैं । कारण कि यक्ष-राक्षस भी देवयोनि होनेसे देवताओंके ही अन्तर्गत
आते हैं ।
[†] सत्रहवें अध्यायके चौदह श्लोकमें ‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्’
पदसे जो देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और ज्ञानीके पूजनकी बात कही गयी है,
उसे यहाँ उपासनाके अन्तर्गत नहीं लिया गया है । कारण कि वहाँ
‘शारीरिक तप’ (केवल शरीर-सम्बन्धी पूजन,
आदर-सत्कार आदि) का प्रसंग है,
जो कि परम्परासे मुक्त होनेमें हेतु है । दूसरी बात, उन देवता,
ब्राह्मण आदिका पूजन केवल शास्त्रकी आज्ञा मानकर कर्तव्यरूपसे
करते हैं, उनको इष्ट मानकर नहीं करते ।
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