वेद नाम शुद्ध ज्ञानका है, जो परमात्मासे प्रकट हुआ है‒‘ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्’ (गीता ३ । १५), ‘ब्राह्मणास्तेन
वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा’ (गीता १७ । २३) । वही ज्ञान आनुपूर्वीरूपसे ऋक्, यजुः आदि वेदोंके रूपसे संसारमें
प्रकट हुआ है । वेद भगवद्रूप हैं और भगवान् वेदरूप हैं । उन वेदोंका सार उपनिषद् हैं
और उपनिषदोंका सार श्रीमद्भगवद्गीता है । वेद तो भगवान्के निःश्वास हैं‒‘यस्य निःश्वसित वेदाः’, पर गीता भगवान्की वाणी है । वेद और उपनिषद् तो अधिकारी
मनुष्योंके लिये हैं, पर गीतामें मनुष्यमात्रका अधिकार है । कौरव-पाण्डवोंके इतिहास-ग्रन्थ महाभारतके अन्तर्गत होनेसे इसके
अधिकारी सभी हो सकते हैं । श्रीवेदव्यासजी महाराजने महाभारतरूप पंचम वेदकी रचना भी
इसीलिये की थी कि मनुष्यमात्रको वेदोंका ज्ञान प्राप्त हो सके ।
गीतामें भगवान्ने वेदोंका बहुत आदर किया है और उनको अपना स्वरूप
बताया है‒‘पिताहमस्य जगतो.......ऋक्साम यजुरेव च’ (९ । १७) । जिसमें नियताक्षरवाले मन्त्रोंकी ऋचाएँ हैं, वह ‘ऋग्वेद’ कहलाता है । जिसमें स्वरोंसहित गानेमें आनेवाले मन्त्र हैं, वह ‘सामवेद’ कहलाता है । जिसमें अनियताक्षरवाले मन्त्र हैं, वह ‘यजुर्वेद’ कहलाता है । जिसमें अस्त्र-शस्त्र, भवन-निर्माण आदि लौकिक विद्याओंका वर्णन करनेवाले मन्त्र हैं, वह ‘अथर्ववेद’ कहलाता है । लौकिक विद्याओंका वर्णन होनेसे भगवान्ने गीतामें अथर्ववेदका
नाम न लेकर केवल ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद‒इन तीन
वेदोंका ही नाम लिया है; जैसे‒‘ऋक्साम यजुरेव च’ (९ । १७), ‘त्रैविद्याः’ (९ । २०), ‘त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना’ (९ । २१) ।
भगवान्ने वेदोंमें सामवेदको अपनी विभूति बताया है‒‘वेदाना सामवेदोऽस्मि’ (१० । २२) । सामवेदमें ‘बृहत्साम’ नामक एक गीति है, जिसमें इन्द्ररूप परमेश्वरकी स्तुति की गयी है । अतिरात्रयागमें यह एक पृष्ठस्तोत्र
है । सामवेदमें सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण इस बृहत्सामको भी भगवान्ने अपनी विभूति बताया
है‒‘बृहत्साम तथा साम्नाम्’ (१० । ३५) ।
सृष्टिमें सबसे पहले प्रणव (ॐ) प्रकट हुआ है । उस प्रणवकी तीन
मात्राएँ हैं‒‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ । इन तीनों मात्राओंसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई
है । त्रिपदा गायत्रीसे ऋक्, साम और यजुः‒ये तीन वेद प्रकट
हुए हैं । वेदोंसे शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय
जगत् प्रकट हुआ है । इस दृष्टिसे ‘प्रणव’ सबका मूल है और इसीके अन्तर्गत गायत्री तथा
सम्पूर्ण वेद हैं । अतः जितनी भी वैदिक क्रियाएँ की जाती हैं, वे सब ‘ॐ’ का उच्चारण करके ही की जाती हैं‒‘तस्मादोमित्युदाहृत्य
यज्ञदानतपःक्रिया । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥’ (गीता १७ । २४) । जैसे गायें साँड़के बिना फलवती नहीं होतीं, ऐसे ही वेदकी जितनी ऋचाएँ श्रुतियाँ हैं, वे सब ‘ॐ’ का उच्चारण किये बिना अभीष्ट फल देनेवाली नहीं होतीं । गीतामें भगवान्ने
प्रणवको भी अपना स्वरूप बताया है‒‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (१० । २५), ‘प्रणवः सर्ववेदेषु’ (७ । ८), गायत्रीको भी अपना स्वरूप बताया
है‒‘गायत्री छन्दसामहम्’ (१० । ३५), और वेदोंको भी अपना स्वरूप
बताया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
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