सर्वश्रेष्ठ धर्म
संसारमें मुख्यरूपसे चार धर्म प्रचलित हैं‒हिन्दूधर्म (सनातनधर्म),
मुस्लिमधर्म, बौद्धधर्म और ईसाईधर्म । इन चारों धर्मोंमेंसे एक-एक धर्मको
माननेवाले करोड़ों मनुष्य हैं । इन चारों धर्मोंमें भी अवान्तर कई धर्म हैं । हिन्दूधर्मको
छोड़कर शेष तीनों धर्मोंके मूलमें धर्म चलानेवाला कोई व्यक्ति मिलेगा;
जैसे‒मुस्लिमधर्मके मूलमें मोहम्मद साहब, बौद्धधर्मके
मूलमें गौतम बुद्ध और ईसाईधर्मके मूलमें ईसामसीह मिलेंगे । परन्तु हिन्दूधर्मके मूलमें
कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा । कारण कि हिन्दूधर्म किसी व्यक्तिके द्वारा चलाया हुआ धर्म
नहीं है, प्रत्युत यह अनादिकालसे चला आ रहा है । जैसे भगवान्
सनातन (शाश्वत) हैं, ऐसे ही हिन्दूधर्म भी सनातन है । इसलिये हिन्दूधर्मको
‘सनातनधर्म’ भी कहते हैं । भगवान्ने भी इस सनातनधर्मको अपना स्वरूप बताया है‒‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं....शाश्वतस्य च धर्मस्य॰’ (गीता
१४ । २७) । जिस युगमें
जब-जब इस सनातनधर्मका ह्रास होता है, हानि होती है, तब-तब भगवान् अवतार लेकर इसकी संस्थापना करते हैं ।[*]
तात्पर्य है कि भगवान् भी इसकी संस्थापना,
रक्षा करनेके लिये ही अवतार लेते हैं,
इसको बनाने अथवा उत्पन्न करनेके लिये नहीं । अर्जुनने भी भगवान्को
सनातनधर्मका रक्षक बताया है‒‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’ (गीता
११ । १८) ।
एक उपज होती है और एक खोज होती है । जो वस्तु पहले मौजूद न हो,
उसकी उपज होती है; और जो वस्तु पहलेसे ही मौजूद हो,
उसकी खोज होती है । मुस्लिम, बौद्ध
और ईसाई‒ये तीनों ही धर्म व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज हैं । परन्तु सनातन हिन्दूधर्म
किसी व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज नहीं है,
प्रत्युत यह विभिन्न ऋषियोंके द्वारा किया गया अन्वेषण
(खोज) है‒‘ऋषयो
मन्त्रद्रष्टारः’ । अतः हिन्दूधर्मके मूलमें किसी व्यक्तिविशेषका नाम नहीं लिया
जा सकता । यह अनादि, अनन्त
और शाश्वत है । अन्य सभी धर्म तथा मत-मतान्तर भी इसी हिन्दूधर्मसे उत्पन्न हुए हैं
। इसलिये उन धर्मोंमें मनुष्योंके
कल्याणके लिये जो साधन बताये गये हैं, उनको भी हिन्दूधर्मकी ही देन मानना चाहिये । अतः उन धर्मोंमें
बताये गये अनुष्ठानोंका भी निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर पालन किया जाय तो कल्याण होनेमें
सन्देह नहीं करना चाहिये[†]
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे ॥
(गीता
४ । ७-८)
[†] प्रत्येक धर्ममें कुधर्म,
अधर्म और परधर्म‒ये तीनों होते हैं । दूसरेके अनिष्टका भाव,
कूटनीति आदि ‘कुधर्म’
है, यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘अधर्म’
है और जो अपने लिये निषिद्ध है,
ऐसा दूसरे वर्ण आदिका धर्म ‘परधर्म’
है । कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें
स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक अपना तथा दूसरेका वर्तमान और भविष्यमें हित होता हो
।
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