(गत ब्लॉगसे आगेका)
कोई अपने घरमें नगरपालिकाके जलकी टोंटी लगाता है तो उसका टैक्स
देना पड़ता है, पर भगवान्ने कई नदियाँ बना दी हैं,
जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता । ऐसे ही कोई अपने घरमें बिजलीका
तार लेता है तो उसका टैक्स देना पड़ता है, पर भगवान्ने सूर्य,
चन्द्र, अग्नि आदि बना दिये हैं,
जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता । सभी मुफ्तमें प्रकाश पाते
हैं । यह भगवान्की असीम उदारता नहीं तो और क्या है ?
भगवान्ने मनुष्यको शरीरादि वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक
और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएं अपनी ही दीखने लगती है । इन वस्तुओंको अपनी
ही मान लेना भगवान्की उदारताका दुरुपयोग करना है ।
भगवान्में यह बात है ही नहीं कि मनुष्य मेरेको माने, तभी
उसका उद्धार होगा । यह भगवान्की बड़ी भारी उदारता है ! मनुष्य भगवान्को माने या न माने,
इसमें भगवान्का कोई आग्रह नहीं है । परन्तु उसकी भगवान्के
विधानका पालन जरूर करना चाहिये, इसमें भगवान्का आग्रह है;
क्योंकि अगर वह भगवान्के विधानका पालन नही करेगा तो उसका पतन
हो जायगा (३ । ३२) । अतः मनुष्य अगर विधाता (भगवान्) को न मानकर केवल विधानको माने
तो भी उसका कल्याण हो जायगा । हाँ, अगर मनुष्य विधाताको मानकर उनके विधानको मानेगा तो भगवान् उसे
अपने-आपकों दे देंगे; परन्तु अगर वह विधाताको न मानकर उनके विधान को मानेगा तो भगवान्
उसका उद्धार कर देंगे । तात्पर्य है कि विधाताको माननेवालेको
प्रेमकी प्राप्ति और विधानको माननेवालेको मुक्तिकी प्राप्ति होती है ।
वास्तवमें देखा जाय तो विधानको मानना और विधाता (भगवान्)
को न मानना कृतघ्नता है । कारण कि मनुष्य जो भी साधन करता है, उसकी सिद्धि भगवत्कृपासे ही होती है । वह जो भी साधन करता है,
उसमें भगवान्का सम्बन्ध रहता ही है । संसार भगवान्का,
जीव भगवान्का, शास्त्र भगवान्के,
विधान भगवान्का‒सबमें भगवान्का ही सम्बन्ध रहता है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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