।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७४, बुधवार
संसार जा रहा है...!



(गत ब्लॉगसे आगेका)

मेरे रुपये हैं, मेरा घर है, मेरा परिवार है, मैं ऐसा हूँ, मैं यों कर दूँगा । अरे, तू तो मर रहा है, कर क्या देगा ? शरीर तो मर रहा है, इसमें जो रहनेवाला है, वह परमात्माका स्वरुप है । इस जागृतिको आप रखो तो सच्‍ची, निहाल हो जाओगे । इसमें सन्देह नहीं है । बड़ी सीधी-सरल और सुगम बात है । बताओ, इसमें कठिनता क्या है ? आपका-हमारा जो शरीर है, यह शरीर पहले ऐसा नहीं था–यह सबका अनुभव है । जितना जी गये, उतना तो मर गये । भाई, बुरा न मानना । सच्‍ची बात है यह । मरना शब्द बुरा लगता है । बुरा लगे, चाहे भला लगे, सच्‍ची बात है कि जितना हम जी गये, उतने दिन तो हम मर ही गये । मर गये ही नहीं, मर रहे हैं । कल जितनी उम्र थी, आज उतनी उम्र नहीं है । इसकी जागृति रखो ।

श्रोता–महाराजजी ! क्या अभी-अभी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है ?

स्वामीजी–अभी-अभी, इसी क्षण हो सकती है । देखो, परमात्माकी प्राप्तिमें देरी नहीं लगती । अपनी जो पकायी हुई धारणा है, उसको दूर करनेमें देरी लगती है अर्थात् यह मेरा शरीर है, मेरा धन है, मेरा कुटुम्ब है–इस तरह जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लिया–इसको दूर करनेमें देरी लगती है ।

संसार नहीं है–इसकी याद न आना दोष नहीं है, संसारको सच्‍चा मान लेना दोष है । जैसे याद न करनेपर भी ‘हम कलकत्तामें हैं’ यह बात भीतर पक्‍की बैठी हुई है, ऐसे ही स्त्री, पुत्र आदि अपने हैं, यह बात भीतर बैठी हुई है । वही परमात्मप्राप्तिमें आड़ लगा रही है । परमात्मा तो मौजूद है, फिर उसके मिलनेमें देरी क्या है ? जो मौजूद नहीं है, उसको मौजूद मानकर मनसे पकड़ रखा है–यही देरीका कारण है ।

श्रोता–जो दीखता नहीं है, उसको अपना कैसे मानें ?

स्वामीजी–भाई, मैंने पहले ही बात कहा दी कि आप परमात्माको भले ही मत मानो, पर संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है–यह दीखता है कि नहीं ? दीखनेपर परमात्माको मान लेंगे–यह बड़ी भारी गलती है, मामूली गलती नहीं । जो दीखता है, उसको मानते हैं–यह गलती है । जो दीखता है, वह तो टिकता ही नहीं । वह तो प्रतिक्षण जा रहा है, मिट रहा है । आज इसी बातको दृढ़तासे मान लो । आज यही पाठ पढ़ लो ।

जो दीखता नहीं, उसको कैसे मानें–यह समझदार आदमीका प्रश्न नहीं है । समझदार आदमीका प्रश्न तो यह होता है कि जो दीखता है, उसको हम कैसे मानें, क्योंकि वह तो एक क्षण भी ठहरता नहीं । संसार नेत्रोंसे रहता हुआ दीखता है और अक्लसे बहता हुआ दीखता है । अतः अक्लसे खुद पहचानो । यह आज अक्ल ले लो कि जो दीखता है, वह सच्‍चा नहीं है ।

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!

–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे