एक दीखनेवाली वस्तु है और एक न दीखनेवाली वस्तु है ।
दीखनेवाली वस्तु ‘प्रतीति’ है[*] और न दीखनेवाली वस्तु ‘प्राप्त’
है । प्रतीतिको जड (प्रकृति) कहते हैं, जिसका असत्-रूपसे
वर्णन किया जाता है और प्राप्तको चेतन (पुरुष) कहते हैं, जिसका सत्-रूपसे वर्णन
किया जाता है–‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी
उभावपि’ (गीता १३/१९) । प्रतितिकी तो स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और प्राप्तकी
सत्ता ही होती है–‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः’ (गीता २/१६) ।
जड और चेतन–दोनों
परस्परविरोधी स्वभाववाले हैं । जड तो नित्य-निरन्तर बदलता रहता है, एक क्षण भी स्थिर
नहीं रहता और चेतन नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, कभी एक क्षण भी बदलता
नहीं । जैसे रात और दिनका कभी परस्पर संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही जड और चेतनका भी
कभी परस्पर संयोग नहीं हो सकता । परन्तु गीतामें (१३/२६) आया है कि सम्पूर्ण
प्राणी जड-चेतनके संयोगसे पैदा होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि चेतन ही जडके साथ अपना संयोग मानता है अर्थात् जड-चेतनका संयोग
केवल चेतनकी मान्यता है, वास्तवमें है नहीं–‘जीवभूतां
महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७/५); ‘मनः
षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५/७) । इस माने हुए संयोगको छोड़नेकी जिम्मेवारी भी चेतनपर ही है;
क्योंकि इसने ही जडको पकड़ा है ।
जब चेतन जडके साथ अपना सम्बन्ध
मान लेता है, तब तादात्म्यरूप अहम् पैदा होता है । यह अहम् न केवल चेतनमें है और न
केवल जडमें है, प्रत्युत जड-चेतनके माने हुए संयोग (चिज्जडग्रन्थि) में है । यह
अहम् ही संसार-बन्धनका मूल कारण है । इस अहम्से ही ममता, कामना आदि अनेक दोषोंकी
उत्पत्ति होती है । अतः इस अहम्को मिटानेके लिये साधक चाहे संसारकी दृष्टिसे
ऐसा मान ले कि ‘संसारकी
स्वतन्त्र सत्ता नहीं है’ चाहे परमात्माकी दृष्टिसे ऐसा मान ले कि ‘सब कुछ परमात्मा ही है’[†] ।
श्रीमद्भागवतमें भगवान्ने संसारकी
दृष्टिसे कहा है–
किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत् ।
वाचोदितं
तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥
(११/२८/४)
‘संसारकी
सब वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं और मनसे सोची जा सकती हैं; अतः वे सब असत्य हैं
। जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है तो फिर उसमें क्या अच्छा और क्या बुरा ?’
परमात्माकी
दृष्टिसे कहा है–
मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ॥
(११/१३/२४)
‘मनसे,
वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे[‡] जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही
हूँ । अतः मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है–यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीध्र समझ
लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘वासुदेवः
सर्वम्’ पुस्तकसे
[*] प्रतीतिके दो भेद हैं–प्रतीति और भान । प्रतीति
इन्द्रियोंका विषय है और भान अन्तःकरणका विषय है । प्रतीति स्थूल है और भान
सूक्ष्म है । सांसारिक पदार्थों, व्यक्तियों आदिकी प्रतीति होती है और
इन्द्रियोंका, अहम्का भान होता है । तात्पर्य है कि प्रतीति और अनुभव–दोनोंके
बीचमें भान है । भानका ज्ञाता स्वयं (आत्मा) है ।
[†] ज्ञानकी रुचिवाला साधक मानता है कि ‘यह सब कुछ नहीं है’ और
भक्तिकी रुचिवाला साधक मानता है कि ‘सब कुछ परमात्मा ही है’ । रुचिभेद होनेपर भी
परिणाममें दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् दोनोंका यह अनुभव हो जाता है कि एक
परमात्मतत्त्वके सिवाय कुछ नहीं है ।
[‡] यहाँ ‘मनसा’ से अन्तःकरण, ‘वचसा’ से सभी कर्मेन्द्रियाँ और
‘दृष्ट्या’ से सभी ज्ञानेन्द्रियाँ लेनी चाहिये ।
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