किसी विषयमें हमें जिससे ज्ञानरूपी प्रकाश मिलें
हमारा अज्ञान्धाकार दूर हो, उस विषयमें वह हमारा गुरु है । जैसे हम किसीसे मार्ग पूछते है और वह हमें मार्ग बताता है तो मार्ग
बताने वाला हमारा गुरु हो गया, हम चाहे गुरु माने या न माने । उससे
सम्बन्ध जोड़नेकी जरूरत नहीं है । विवाहके समय ब्राह्मण कन्याका सम्बम्ध वरके साथ
करा देता है तो उनका उम्र भरके लिये पति–पत्नीका सम्बन्ध जुड़ जाता है वही स्त्री
पतिव्रता हो जाती है । फिर उनको कभी उस ब्राह्मणकी याद ही नहीं आती; और उसको याद
करनेका विधान भी शास्त्रोंमें कहीं नहीं आता है । ऐसे ही गुरु हमारा सम्बन्ध
भगवान्के साथ जोड़ देता है तो गुरुका काम हो गया । तात्पर्य यह है कि गुरुका काम
मनुष्यको भगवान्के सन्मुख करना है । मनुष्यको अपने
सन्मुख करना, अपने साथ सम्बन्ध जोड़ना गुरुका काम नहीं है । इसी तरह हमारा काम भी
भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ना है, गुरुके साथ नहीं । जैसे संसारमें कोई माँ
है, कोई बाप है, कोई भतीजा है, कोई भौजाई है, कोई स्त्री है, कोई पुत्र है, ऐसे ही
अगर एक गुरुके साथ और सम्बन्ध जुड़ गया तो इससे क्या लाभ ? पहले अनेक बन्धन थे ही,
अब एक बन्धन और हो गया । भगवान्के साथ तो हमारा सम्बन्ध सदासे और स्वतः–स्वाभाविक
है; क्योंकि हम भगवान्के सन्तान अंश है–‘ममैवांशो
जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५।७ ), ‘ईश्वर अंस
जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७/१) । गुरु उस भूले हुए सम्बन्धकी याद कराता है, कोई नया सम्बन्ध नहीं जोड़ता ।
मैं प्रायः यह पूछा करता हूँ कि पहले बेटा होता है कि बाप ? इसका उत्तर प्रायः
यही मिलता है कि बाप पहले होता है । परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो पहले बेटा होता
है, फिर बाप होता है । कारण कि बेटा पैदा हुए बिना उसका बाप नाम होगा ही नहीं ।
पहले वह मनुष्य (पति) है और जब बेटा जन्मता है, तब उसका नाम बाप होता है । इसी तरह
शिष्यको जब तत्त्वज्ञान हो जाता है , तब उसके मार्गदर्शकका नाम ‘गुरु’ होता है । शिष्यको ज्ञान
होनेसे पहले वह गुरु होता ही नहीं । इसलिये कहा है –
गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म
गुरुरेव न संशयः ॥
(गुरुगीता)
अर्थात् ‘गु’ नाम अन्धकारका है और ‘रु’ नाम प्रकाशका है,
इसलिये जो अज्ञानरूपी अन्धकारको मिटा दे, उसका नाम ‘गुरु’ है ।
गुरुके विषयमें एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है –
गुरु गोविन्द दोउ खड़े,
किनके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय ॥
गोविन्दको बता दिया, सामने लाकर खड़ा कर दिया, तब गुरुकी
बलिहारी होती है । गोविन्दको तो बताया नहीं और गुरु बन
गये–यह कोरी ठगाई है ! केवल गुरु बन जानेसे
गुरुपना सिद्ध नहीं होता ।
इसलिये अकेले खड़े गुरुकी महिमा नहीं है । महिमा उस गुरुकी है, जिसके साथ
गोविन्द भी खड़े है–‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े’ अर्थात् जिसने भगवान्की प्राप्ति करा दी है ।
असली गुरु वह होता है, जिसके मनमें चेलेके कल्याणकी इच्छा हो और चेला वह होता
है, जिसमे गुरु कि भक्ति हो –
को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा
शिष्यस्तु
को यो गुरुभक्त एव ।
(प्रश्नोतरी ७)
अगर गुरु पहुँचा हुआ हो और शिष्य सच्चे हृदयसे आज्ञापालन
करनेवाला हो तो शिष्यका उद्धार होनेमें संदेह नहीं है ।
पारस केरा गुण किसा,
पलटा नहीं लोहा ।
कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोह ॥
अगर पारसके स्पर्शसे लोहा सोना नहीं बना तो वह पारस असली
पारस नहीं है अथवा लोहा असली लोहा नहीं है अथवा बीचमें कोई आड़ है । इसी तरह अगर
शिष्यको तत्त्वज्ञान नहीं हुआ तो गुरु तत्त्वप्राप्त नहीं है अथवा शिष्य आज्ञापालन
करनेवाला नहीं है अथवा बीचमें कोई आड़ (कपटभाव) है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे
|